रात के अंधेरे मे, तारों को टिमटिमाते देखा है। दुख में मैने जिन्दगी को वजह ढूंढ मुस्कुराते देखा है। मैने देखा है मजबूत खड़े वृक्ष को आंधियों मे गिरते एक छोटे से पौधे को मगर उसी आँधी मे जड़ पकड़ मचलते देखा है। मैने जिन्दगी को गिरते, फिर उसे गिर कर संभलते देखा है।
उम्मीद भरी आँखो को गमों से क्यो ठगे मौत सच है जिन्दगी का मगर फिर धोखे सी क्यो लगे जो सोता नही था कभी सबके सोने से पहले वो आज कैसे यूं मुह फेरे सोया है जिसने कभी किसी को कोई कमी होने नही दी आज उसकी कमी मे सारा घर रोया है माँ डरी हुई है कुछ समझ नहीं पा रही पापा छुप छुप के रो लेते है बुआ काम करते करते कभी जब अपको आवाज दे देती है खुद को खुद ही सही कर के खुद ही आंसू पोछ लेती है शोर गुल मे भी जो ये बेबस सी खामोशी है 10 दिन निकल गए पर आज भी वैसी है उम्मीद भरी आँखो मे केवल खामोशी है मौत सच है मगर बिल्कुल धोखे जैसी है
माँ, बेटी, बीवी, औरत ने हर रूप मे तुम्हे संभाला हैं तुम खुदगर्ज़ हो या बेपरवाह तुमने उसे हर पल नकारा है समाजिक रुढ़ियों का एक पहाड़ बना कर चढ़ा दिया उस पर उसे कभी नज़र, कभी नज़रिये से हर रोज़ उसे दुत्कारा है जिसकी दुनिया ही बन गए थे तुम जिसने खो कर अपने सपने, तुम्हारे सपनो को अपनी आँखो मे उतारा हैं क्या कभी तुमने पुछा उसका हाल क्या कभी जब वो कमज़ोर पड़ी तुमने उसे संभाला हैं?
देखा है मेरी सफलता का सुरज सबने मैं कितनी रातें हारा ये कोई नही जानता मुझे देख उचाईयों पर जो निहारते नही थकते, मैं कितनी बार इंन रास्तों पर गिरा और सम्भला कोई नही जानता जो आज मेरी कहानियां सुनते है चाव से, वो मेरी इन्ही बातों को कभी फिजूल कहते थे जिनकी रौनक का मैं आज एक अहंम हिस्सा हुं, वो कभी मुझे पहचानने से कतराते थे कोई नही जानता सब देखते है मेरी मुस्कान मगर उनके पिछे छुपी थकान कोई नही जानता
कद्र किया जाता है दिखाया नही जाता वफादारी करना किसी को सिखाया नहीं जाता उठते बैठते जब छोटा होने लगे अपना ही अश्तीत्वा तो दूर हो लो उस अंधेरे से खुद को खो कर कोई रिश्ता निभाया नही जाता