Akanksha Kumari   (Aksh)
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Joined 4 March 2019


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8 MAR 2022 AT 20:51

Never stop believing in yourself
I know, it's hard
I know, it's tough
But, is it really?
More than you?
If so, then I must say you need to get introduced to yourself
The one who is somewhere inside you
Somewhere, looking at you
Waiting for you
To believe in him, to believe in you.

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18 OCT 2021 AT 21:41

जीवन के भवर में न जाने कितनी लहरें पार कर गए
कुछ खुशियां ले कर आए, कुछ तार तार कर गए
कभी तेरी मेरी, कभी उसकी मेरी, कभी न जाने किसकी मुझसे मुलाकात हो गई
दो पल को ठहरे, कुछ गुफ्तगू हुई, कुछ बात हो गई
पर न जाने कैसे हालात कर गए
कुछ रिश्ते आबाद हो गए, कुछ रिश्ते बर्बाद कर गए
पर देखो मैं खड़ी हु तुम्हारे सामने
तुम्हारी दहलीज पर
कभी लड़खड़ाती
कभी ललकारती
कभी प्रेम से भरी
कभी इंतजार में
तुम जब भी दरवाजा खोलोगे
मैं मिलूंगी एक नए एहसास के साथ
तुम आंखों में बंद कर लेना मुझे
जब पाओगे मुझे अपने ही एहसास की तरह
अपने किसी खास की तरह
और खोल देना अपनी आंखें मेरे सामने
जब मैं भूल जाऊ अपने ही व्यक्तित्व को, अपने ही वजूद को
और याद दिलाना मुझे बीती मीठी यादें
मेरी बचपन की बातें
और लौटा लाना मुझे मेरी दुनिया में, अपनो के साथ।।

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19 SEP 2021 AT 11:39

मेरे दिल ने दगा किया है मेरे साथ
मूझसे ज्यादा हर बार ये उनका हो जाता है

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13 JUN 2021 AT 17:25

पहली बार से ज्यादा कठिन होता है
दोबारा विश्वास जीतना

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16 MAY 2021 AT 1:29

Life is to love, to live
And that's what we forgot

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22 APR 2021 AT 14:09

ये भरोसा भी कितनी अजीब चीज़ है ना
कोई कर ले आप पे
तो एक जिम्मेदारी सी बन जाती है
उसे कायम रखने की

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19 APR 2021 AT 8:28

आना भी अकेले होता है और अकेले ही तो जाते है
वो तो ये कमबख्त दिल और दिमाग है जो बीच का खेल बिगाड़ देते है

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10 APR 2021 AT 10:46

क्या आप अपने घर का रस्ता बता सकते हो ?
वो क्या है ना किसी ने मुझसे किसी साफ दिल इंसान का पता पूछा है

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10 APR 2021 AT 10:34

रूह से निकले आह तेरी
ये तो बस एक शुरुआत है
नेत्र नर्क तेरे देखेंगे
कुछ ऐसी तुझमें बात है

शिव हूं मैं
पर रौद्र हूं
अब तांडव मैं मचाऊंगी
बांध जटाओं में तुझको
डर का एहसास कराऊंगी
क्रोध हूं मैं
अग्नि हूं मैं
ज्वाला अब मैं बरसाऊंगी
स्त्री हूं मैं
हां, स्त्री हूं मैं
विध्वंश सब मैं कर जाऊंगी।।

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8 APR 2021 AT 13:02

दोष है नज़रिए का या दोषी दुनिया वाले है ?
समझ नही आता इन नासमझों की समझ को कैसे समझूं
उलझ गई हु इस मंजर में
इन उलझे लोगो के बीच अपने आप में कैसे सुलझु?
जुबां बयां नहीं करती,
इन कोरे पन्नो पे मेरी कलम बयां करती है
पर उनके लिए तो यह बस गोल अक्षर है
जैसी गोल हमारी धरती है
इंसानियत का रस्ता दूर कही खो गया है
अब तो शराफत भी कही शरीफ बन कर सो गया है
ना कोई पराया है, ना कोई अपना है
इंसान को इंसानियत के साथ पाना
तो जैसे बस एक सपना है
फूलों की महक ना जाने कहा चली गई
और जलन की बू आती है इंसानों से
अंदर के भगवान को तो पहचान न सके
और प्रार्थना करते है पत्थर के भगवानों से

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