खौफ़ जकड़ के बैठा है मर्म की नर्सजल को
हर वक़्त फड़फड़ाती है जो खौफ़ की जकड़ से
मेहमान समझा था जिसे वो मालिक बन जाएगा
खौफ़ है, कि खौफ़ मेरे ज़ेहन से कब जाएगा
वक़्त अच्छा होगा, क्या फिर भी ये ठीक हो पाएगा
खौफ़ रूपी पंछी को पनाह दी थी हृदय रूपी वृक्ष पर
वृक्ष ने श्रांत मुसाफिर समझ पनाह दी थी
वृक्ष में ही रंध्र कर खौफ़ ये वृक्ष गिराएगा
खौफ़ है कि खौफ मेरे ज़ेहन से कब जाएगा
वक़्त अच्छा होगा, क्या फिर भी ये ठीक हो पाएगा
के बंद पुस्तकों के उपर धूल का पहरा आ गया था
पुस्तकों ने धूल को साझी समझा
न जानता था धूल से दीमको को निमंत्रण मिल जाएगा
खौफ़ है कि खौफ़ मेरे ज़ेहन से कब जाएगा
वक़्त अच्छा होगा, क्या फिर भी ये ठीक हो पाएगा
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जो न हो मेरी तक़दीरों मे ,उसे इक पल भी मेरे संग न रखना
फिर छीन के उसे इक रोज़ ,मुझे ताउम्र तंग न रखना
की मातम की ख़ामोशी ,खा देती है जीत के शोर को
जिसमें जीते सियासत, हार जाए इंसान खुदा ऐसी जंग न रखना-
इक हिस्सा मेरा चुपचाप सब सहना चाहता है
इक हिस्सा मेरा आपबीती कहना चाहता है
इक हिस्सा मेरा बहाव संग बहना चाहता है
इक हिस्सा मेरा एक ही जगह रहना चाहता है
इक हिस्सा मेरा थक कर ज़मीन पर ढहना चाहता है
इक हिस्सा मेरा आसमां को घूरते रहना चाहता है-
अतीत की बातें छेड़ मुझे बार बार न सताओ यारों
मै उठ चुकी हूं जिस जगह से वहाँ वापस न गिराओ यारों
के बीती बातों को बीते कल तक ही छोड़ आई हूँ अब
बार बार पुराने फ़साने छेड़,अतीत में न पहुँचाओ यारों-
मुझे उड़ान भी देते है , मेरे परों पर निगाह भी रखते हैं
बेशक अश्क नहीं पोंछते मगर ज़ख्मों में आह रखते हैं-
इस जहाँ से तो निकलना है इक रोज़,उस जहाँ से भी निकाले हम जाएंगे
डगर डगर भटकते ही रहना है हमे , न जाने कहाँ स्थायी महल बनाएंगे
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हम चाहें या न चाहें ज़िन्दगी हमे आगे को धकेलती जाए
हम मंज़िल पाएं या न पाएं तक़दीर राहें बदलती जाए
हम शिकन छुपाएं या न छुपाएं उम्र हर रोज़ ढलती जाए
हम लबों पे सफाई सजाएं या न सजाएं दिलों में ग़लतफहमियां पलती जाए
हम रोना चाहें या न चाहें गर्दिशें फूल समझ हमे मसलती जाए
हम कागज़ी नैया को बदलना चाहें या न चाहें लहरें इन्हे पलटती जाए
हम चिरंगदान बुझाना चाहें या न चाहें संकट की गर्मी में पिघलती जाए
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कभी हालातों ने कभी हादसों ने हमे झुकाया है
वर्ना सर हमने भी कई बार उठाया है
कभी खौफ़नाक मंज़र,कभी हालातों के ख़ंजर ने ज़ख़्म हरे किए
वर्ना कितनी दफा़ सारे ज़ख्मों को हमने भुलाया है
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आज गर बढ़ भी जाऊँ आगे ,जाने कहाँ फिर रुकना पड़ेगा
आज सर उठा भी चलूँ , न जाने कहाँ फिर झुकना पड़ेगा
कहीं ठहरने की फुरसत मिले तो मै तैयारी कर निकलूं
न जाने कहाँ कहाँ कितनी बार अभी मेरा इम्तिहाँ पड़ेगा-
वो भरी महफ़िल मे भी रो पड़े
हम तन्हाईयों मे भी जश्न मनाते रहे
आवाज़ होकर भी वो खामोश हो गए
हम दुखते कंठ से गीत गुनगुनाते रहे-