बैठी हुई गँगा किनारे मैं, गँगा को निहारती ।
इस कल कल बहते पानी को, अपनी रगों में उतारती ।
प्रफुल्लित हो उठता है ये मन,जब चलती है शीतल पवन ।
खिल उठता है रोम रोम उल्लास से,उस बहते जल की आवाज़ से ।
मैं अपने असतित्व को, इस पवित्रता से हूँ निखारती ।
बैठी हुई गंगा किनारे मैं, गंगा को निहारती ।।
कुछ ये लहरें छूती हुई तन को,
खिला देती है अंतर्मन को ।
कुछ किरणे खिलती सूरज की,
बिखरी हुई जल पर कनक सी ।
चमके ये आसमान और ये जल भी,
हुई थल पर भी फिर कुछ हलचल सी,
कर आत्मा को मेरे चंचल सी,
मझको एक मुस्कान से जैसे हो सँवारती ।
बैठी हुई गंगा किनारे मैं, गंगा को निहारती ।।
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