"शीर्षक- माँ"
ममता में अनंत आँसू बहाने वाली
दर्द में आँखों को सूखा रखती है ,
अपने हिस्से का भी बाँटकर हमें
माँ अक्सर खुदको भूखा रखती है ।
कैसे बचा लेती है बुरी नज़रों से भी
मुझे तो हर दिन तू फ़रिश्ता लगती है ,
जाने अनजाने भूल जाते हैं हम तुझे
फिर भी हम मूर्खों से रिश्ता रखती है ।
हमारी ज़िद पर सब लुटाने वाली
अपनी खुशियों का गला घोंटती है ,
जो थी कभी बिल्कुल हम जैसी
अब सपनों को चूल्हे में झोंकती है ।
हम आंकते थे कम बचपन में जो
अब जाना कितने करिश्में करती है ,
उठ ऊपर उसे नीचा दिखाते हैं जो
माँ न कभी कोई शिकवे रखती है ।
चिंता में हमारी विचलित हो जाती
हर उम्र संग माँ बन खुदा चलती है ,
नहीं जरूरत किसी ईश्वर भक्ति की
जिस घर माओं की दुआ लगती है ।
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