Akanksha Bartariyar   (Aspiration)
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Phoenix will rise from the ashes again!
IG- un_solicited_me
Joined 11 October 2017


Phoenix will rise from the ashes again!
IG- un_solicited_me
Joined 11 October 2017
26 NOV 2022 AT 0:15

सही अक्सर ग़लत सा क्यों लगता है?
ज़रूरी तो है पर दर्द सा क्यों होता है ?
चलना भी है फिर थकान सा क्यों लगता है ?
तू है तो मगर नहीं सा क्यों लगता है ?

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2 FEB 2022 AT 19:16

दिल ये यूँही बार बार,
क्यों सोचे है तू।
वो जो गया प्यारा,
क्यों छोड़ गया है यूँ ।
काश तू रुक जाता,
अधूरी बात पूरी करता।
काश मैं रोक पाता,
यूँ अकेले ना पड़ता ।
ऊपर वाले ने माना नहीं,
तुझे अभी जाना ना था।
स्तब्ध यहीं ठहरा है,
तुझे अलविदा कहना न था ।
सोचता है हर दुःख में,
किसी के पहले मैं जाऊँ।
किसी को विदा ना करूँ,
कष्ट ये भयावह सह ना पाऊँ।
तेरे पीछे जो रह गए,
उनपर क्या बीतेगी।
तुम जिनके तारे थे,
उनके भी दिल टूटेंगे।
फ़िक्र कर खुद की,
खुद से ग़र प्यार नहीं।
ख़ैर रख उनकी,
जिनका तेरे बिना कोई और नहीं।

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18 DEC 2021 AT 1:53

क्यों नींद आँखों से रुसवा हुई है ?
मन में क्यों इतनी बेचैनी सी है ?
जुनून ये कैसा क्यों सवार हुआ है ?
बर्दाश्त ना हो कुछ क्या ऐसा हुआ है ?
खुद को लगी चोट का अंदाज़ा बहुत है ।
क़हर बरपाते भी वही और रोते भी खुद हैं ।
ख़ुदगर्ज़ कम्बख़्त इल्ज़ाम में माहिर हैं
अपनों को दिए दर्द का पछतावा किसे है ?
इतनी नफ़रत हमें पहले शायद ही हुई है ।
बेग़ैरत हैं वो जो ज़लील हरकतें हुईं हैं ।
अपनी ग़ैरमौजूदगी का इल्म इस कदर है ।
कि आँखें तो बंद हैं पर नींद किसे है ?

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10 DEC 2021 AT 11:52

है देश को हमेशा नाज़ उनपर
उसपर बलिदान जो होते हैं ।
सेवा निरंतर करते इसकी,
इसपर ही मर मिटते हैं।
मिट्टी का गौरव बना रहे,
भरसक ये परिश्रम करते हैं ।
सैकड़ों शिकायतें हमें ज़िंदगी से,
ये सारे सुख त्याग देते हैं ।
दो पल की दूरी हमें डराती है,
अपनों से ये कब से बिसरे ।
चैन की नींद हम सोते हैं,
जब सरहद पर वो पहरा देते हैं ।
हम धर्म पर लड़ते मरते हैं,
ये बिना शिकायत धर्म निभाते हैं ।
हर साँस हमारी आज़ादी की,
नमन उन्हें हम करते हैं ।

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1 DEC 2021 AT 10:57

फ़ासले कभी दरमियाँ थे ही नहीं
यही वजह हुई कि खींची हुई लकीरें नज़रंदाज़ हो गयीं ।

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30 NOV 2021 AT 14:11

Exhausting and highly injurious to your self respect!

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30 NOV 2021 AT 10:23

कभी लोगों की भीड़ में खुद को अकेला पाया है?
जीवन की आपा धापी में भीतर एक ठहराव पाया है?
बोलते तो बहुत हो पर कह पाने का सुकून आया है?
सुनने वाले बहुत हैं पर समझे जाने का संतोष आया है?
दोस्त तो हैं पर बेबाक़ी का समाँ कभी बनाया है?
मुखौटों से बेनक़ाब हो पाए ऐसा रिश्ता कभी बनाया है?
दबे जज़्बात काग़ज़ पर उतारना तो जानते हो,
कभी बेफ़िक्री से शब्दों में बयान कर पाए हो?
ज़िंदा तो हर घड़ी हो सबके लिए लेकिन
क्या खुद के लिए ज़िंदगी जी पाए हो?
और अगर हर सवाल में हामी भरी जो तुमने
तो जनाब क्या ऐसी ज़िंदगानी किसी और को दे पाओगे?

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17 JUL 2021 AT 10:44

झरोखों से बाहर आसमान धुंधला सा है,
मानो वो भी अभी थोड़ा व्याकुल हो रहा है ।
बरस जाऊँ अब या थम जाऊँ ज़रा,
इसी असमंजस में ठहरा खड़ा है ।
है फ़िक्र उसे किसी के भीग जाने की,
अनजान है मगर कि वो बेसब्र पड़ा है ।
जा फुसफुसा दे कोई कानों में उसके,
इंतज़ार बरसने का कोई कर रहा है ।
मदमस्त होकर कोई झूमने को खड़ा है,
एक बार जो अभ्र धरा चूमने को बढ़ा है ।

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19 JUN 2021 AT 22:38

खुद को खुद से बचाए रखना ।

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19 JUN 2021 AT 22:37

खामोशी भी एक लत है
जिसने बाहर ढूँढ लिया
उसे जन्नत मिल गई,
जिसे अंदर मिल गया
वो खुद जन्नत बन गया।

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