अज्ञात अज्ञानी   (अज्ञात अज्ञानी)
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Joined 22 April 2021


Joined 22 April 2021

--अफसर--
एक थे अफसर कुछ दोस्त से चेहरे वाले,
अपनी आस्तीन में कुछ सांप पालने वाले।
धीरे-धीरे तीन सांपों ने अफसर के कान भरे,
और साहब के विचारों में बहुत आग लगाई।
सांपो की बातों ने भी क्या खूब असर किया,
और साहब की असलियत भी सामने आई।
साहब ने हम सब लोगों को समन भिजवाया
कहा कि साहब ने इमरजेंसी मीटिंग है बुलाई।
मीटिंग में हम सबको लाइन से किया खड़ा
और हम सबकी शिनाख्त परेड थी करवाई।
उसने जैसे ही हमारी पहचान पुख़्ता की
साहब ने इज्ज़त की सारी फीत उतरवाई।
अदालत में कुछ ज़िन्दा इन्सान पेश हुए थे,
मगर फिर कुछ ज़िन्दा लाशें ही बाहर आई।
दिल किया कि अब खुदकुशी कर ली जाए
मगर दुर्भाग्य से लाशों में सांसे लौट कर आई।
कोई नहीं था हमारे आंसुओं को पोंछने वाला,
सबके दिलों में तमाशबीनी ही थी नजर आई।
जब जब गुजरा अदालत के पास से 'अज्ञात'
तो फिर फिर वो शिनाख्त परेड भी याद आई।
ऐसे थे वो अफसर कुछ दोस्त से चेहरे वाले,
अपनी आस्तीन में वो कुछ सांप पालने वाले।

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खंजर की नोक सीने पर थी मेरे,
गर मैं सांस लेता तो मारा जाता।

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इस तरहा तन्हा हो चला हूँ दरो-दीवार में अपने,
कि आइने में भी खुद का चेहरा नहीं पाया मैंने।

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करके हवाले खंजर को ज़िन्दगी मेरी,
वो देखते हैं नजारा बेचारगी के साथ।
बना लिया है खुद को पानी की तरहा,
वो कैसे काटते हैं आवारगी के साथ।

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वो दुकान महज दुकान नहीं है हिस्सा है जीस्त का,
जैसे कुछ रिश्ते किसी नाम के मोहताज नहीं होते।

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खत अब खत नहीं रहे, अतीत का हिस्सा हो चले हैं,
रिश्तों में भी कहां तरबियत बची है कि खत लिखा जाए।

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कुछ ख्वाब अधूरे ही रह जाएं तो अच्छा रहता है साहिब,
जब मुकम्मल हो जाते हैं तो जीने की वजह ही नहीं रहती।

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इतना जला हूँ
कि लगता है
मौत पर केवल
राख रह जाऊंगा।
फिर मेरी देह को
कांधा देने की
तेरी हसरत
अधूरी रह जाएगी।
फिर मुझ पर तेरा
ये अहसान भी नहीं रहेगा
कि मैंने तेरे जनाजे को
कांधा दिया था।
और इस तरहा
मैं पहली
और आखिरी बार
जीत जाऊंगा
और तू पहली
और आखिरी बार
हार जाएगी।
जब मैं मौत पर
केवल राख रह जाऊंगा।

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मेरी खामोशियों को मेरी कमजोरियाँ मान बैठा है वो,
वो तमाम जंगें हार गया मेरी चुप्पियों से लड़ते-लड़ते।।

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मेरा बेघर रहना उसे अच्छा नहीं लगता,
बड़ी सी कब्र दी मुझे सर छुपाने के लिए।

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