तुम नदी की तरह
बहते हो मुझमें.
मैं डूबती हूँ उसके एकांत में
जहाँ डसता है निराश्रित साँप
कई बार,
फिर विष के कालचक्र में
ढूँढती हूं
समाधिस्थ मौन को
जिसे तराशकर तुमने बनाया है मोहक
सुख की तिथियाँ
फिर तैरती है
देह की आकाश-गंगा में
फिर जपती हूं
तुम्हारा नाम
श्वेत कमल धरे
बहते हुए निशुल्क मोक्ष के लिए...
अजेय महेता
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