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कहदो कोई
ओस की बूँदों से
अब खत्म हुई तिमिररज
आज,
उनमें पनपी बसंत पर;
क्यों मैं पतझड़ बन झड़ूँ?
उस छुवन का अहसास
ऐंठन कर
कही
बिछा लूँ...
ओढ़ उसे ही
कुछ सो लूँ मैं...?
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कलम की सियाही खत्म होने से पूर्व
मुझे चुन लेना चाहिए
एक उत्तराधिकारी
सौंप देनी चाहिए अपनी अधूरी कविताएँ
और अब
मैं घोषित करती हूं
वसीयत में अपने मनपसंद वारिस का नाम
कुछ त्यजी हुई
रूहानी निब
तोड़ते हुवे
लेकिन अभी सुना, वो दृष्टिहीन है...-
अमूर्त शब्दों से मैं सहमत नहीं हूं ,और इसलिए मैंने उन शब्दों की एक छोटी सूची बनाई है ...जो मेरे लिए अर्थपूर्ण नहीं हैं।
और यही कारण है कि मेरे द्वारा शायद ही कभी "आत्मा" जैसे अस्पष्ट शब्दों का उपयोग होता है।-
वो मुक्त करता रहा
मैं बँधती रही...
फिर एक दिन ...मैं
जीर्ण शीर्ण क्या हुई
ये सफेद कुर्सी की तरह...
पूरा कस्बा बूढ़ा हो गया...
और वो छूट गया।
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सुनो न
मुझे समझना है कि
क्या प्रेम में हम होते हैं?
हाथों को जोड़ के
आँखों से दो आँसूओकी बूंदें गिराकर
माँग लेते है
कुछ कुचले हुवे
सपनों की ऊंची उड़ान?
वास्तविकता की धरा से कोसों दूर...
कदाचित अपने सिवाय
हम कभी नहीं होते किसी के प्रेम में...-
शांति और सत्य का गुप्त रास्ता अक्सर उन चीजों को करने में अंतर्भुक्त है जिन्हें आप नहीं करना चाहते हैं।
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