Ajay Nigam   (Ajju)
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Joined 31 July 2017


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11 MAR AT 22:15

अहल-ए-दहर की खिदमत में
फारिग हुआ ये जिस्म
उम्र भटकती रही उम्र भर,
पर नसीब ना हुआ ये जिस्म

अजनबी इस शहर की भीड़ में
खो गई बेबस ये रूह
वक़्त ढूंढ़ता रहा वक्त हर वक्त,
ना जाने कब पराई हुई ये रूह

जिस्म से रूह निकले तो
क़फ़स टूट जाए
मिट्टी जब आगोश में ले,
हर बोझ छूट जाए

जिस्म को मिले आज़ादी की राह,
और रूह को सुकून-ए-पनाह मिल जाए

–अजय निगम

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8 SEP 2024 AT 1:16

I want to die,
just to live those last beautiful 7 minutes.
Those 7 minutes will be mine,
filled with all the good memories.
Some of those memories
will try to stop me from dying,
Fighting to keep me alive.
I want to witness those memories,
See them struggle to hold onto my life.
I want to see the faces of everyone
who will be part of those final 7 minutes.
I know I’ll smile like never before,
Watching my life flash before my eyes.
There will be no bad moments,
Just the best 7-minute episode,
Of me, my life, and my memories

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10 AUG 2024 AT 16:30

जा रहे हो, मगर कहां?
काफी दूर
फिर भी कितनी दूर
इतनी दूर जहां से और दूर ना जाना पड़े
और जहां से लौटना भी ना पड़े

जा रहा हूं मैं खुद से दूर तुमसे दूर
लेकिन मिलना किससे है?
क्यों बेकार सवाल करते हो
इतनी दूर कोई
किसी से तो मिलने जाता ही है
हां जाते होंगे जाने वाले
कोई खुदा से मिलने जाता है
कोई खुद से मिलने जाता है
तो तुम किस से मिलने जा रहे हो?
खुदा से या खुद से?

मैं जा रहा हूं मिलने
इस दूरी तय करने वाले से
जो खुदा और खुद के बीच की है
ना मैं खुद से कभी मिला
ना खुदा से मिलने की इच्छा हुई
इन दोनो के बीच जो है
मैं उस से मिलने जा रहा हूं...

काफी दूर जा रहा हूं

-अजय निगम

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6 AUG 2024 AT 20:42

जब खुलेंगी बेड़ियां, लगेगा आज़ाद हो
जब लगेगा कठपुतली नहीं इंसान हो
जब धागे खींच लोगे औरों के हाथों से
खुद का जब खुद पर काबू पाओगे
जब महसूस करोगे निकल आए हो
तोड़ के बंधन, सारे रिश्ते नाते
जब सोचोगे
अब तक ये मुमकिन क्यों ना था
और हल्का जब महसूस करोगे
पाओगे खुद को पड़ा हुआ
उन्हीं लोगों के बीच
जिनके हाथों थामे थे
खुद को नियंत्रण करने के धागे
जिनसे बंधवाई थी
खुद अपने हाथों बेड़ियां
रोएंगे चिल्लाएंगे वो
दुख भी मनाएंगे
आखिर एक कठपुतली
खेलने को कम जो हुई है

- अजय निगम

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1 AUG 2024 AT 14:21

आधे आधे चिथड़ों से
झांकता हुआ पूरा शरीर है
आधा ढका आधे चिथड़ो से
आधे चिथडे भी पूरे नहीं हैं
सावन का मास है
उन आधे चिथड़ों को
अभी आराम है
लेकिन जो ढका नहीं है
उसका क्या?
वो तो भीग रहा है
खुली चोटों पर, पानी की ओट है
पानी से भी शरीर जल ही रहा है
मन भीग रहा है
तन पानी से जल रहा है
चिथड़े भी भीग चुके हैं
अब लगभग नंगा ही है शरीर
पूरा तन ढका होने के बावजूद
मेरा भी, तुम्हारा भी
इस देश का भी
इस जहां का भी
चिथड़ों में जीने की आदत गंदी है
अब आराम है इन चिथड़ों में
मुझे भी, तुम्हे भी
इस देश को भी
इस जहां को भी

- Ajay Nigam

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26 JUL 2024 AT 23:28

तुम्हें काफी कुछ लिखा गया
कभी फूल सी नाजुक
कभी तुम्हे चांद कहा गया
कभी कहा
दुनिया में तुमसा कोई है ही नहीं
कभी तुम्हे किसी की दुनिया कहा गया
कहा गया की संपूर्ण हो
तुम्हे पा लेना मतलब सब कुछ पा लेना
तुम्हे विशेष कहा गया
और तुमने?
तुमने खुदको क्यों ना बोला
खुदा के कई रूप में से एक हो तुम
तुम हो फूल सरीखी नाजुक
तो दो धारी तलवार भी हो तुम
चांद सी कोमल हो जो
सूर्य जैसी तुम आग भी हो
हां, ये सच है
दुनिया में तुमसा कोई हैं ही नहीं
और होगा भी नहीं
तुम दुनिया हो, औरों से पहले
खुद की भी हो
तुम जो हो, जहां हो, जैसी भी हो
बस सम्पूर्ण हो तुम...

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15 JUL 2024 AT 19:08

माह-ओ-अंजम कहकशां के उस पार
जीस्त जो अंधकार में है
मैं भी वहीं हूं
तुम आना चाहोगे क्या?
आलम तो यूं है यहां
एक बार जो आओगे
खोजोगे मुझे
लेकिन पहचान पाओगे क्या?
मो'तरिफ कोई होगा नहीं
तआरुफ़ करवाने को
जो पहचान भी लिया
वापस लेके जाना चाहोगे क्या?

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14 JUL 2024 AT 21:56

कुछ लम्हों के टुकड़े हैं
जो बिखरे पड़े हैं
यादों के फर्श पर
चुभने लगे हैं अब वो पैरों में
उम्र के भी जूते उतर चूके हैं
नंगे पैर ही अब
इस सफर को पूरा करना है
दो दिन की जिंदगी जीनी है
पांच दिन उसे कमाना है
कुछ लम्हें अब भी बन रहे हैं
जो यादें बन जाएंगे
अभी जो चुभ रहे हैं पैरों में
वो और ज्यादा हो जाएंगे
सोच तो ये है कि
उन लम्हों को बनाया ही ना जाए
जो है, जैसा है
बस यहीं खत्म किया जाए

- अजय निगम


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12 JUL 2024 AT 22:30

मैं प्रेम की आकांक्षा करूंगा
और वो मुझको मिल जाएगा
इतना आसान तो नहीं है
इतना आसान नहीं है
तुमसे कह देना सब कुछ
और पा लेना तुमको
क्षण भर में ही
कई तारीखें लगेंगी
कुछ संशोधन भी होंगे
कई शब्द लगेंगे,
कुछ बेमन भी होंगे
मिन्नतें भी होंगी लाखों
कई रातों के पहर लगेंगे
फिर किसी एक दिन
जब तुम थोड़ा कम इठलाओगी
खुद चल के आंगन मेरे
तुम जिस दिन बेझिझक आओगी
और प्यार से जिस दिन
हाथों को मेरे अपने हाथों में लोगी
खोल बाहों को
मुझे जब आलिंगन में भरोगी
तब तुम सोचोगी
की मै प्रेम की आकांक्षा करूं
और वो मुझको मिल जाय
इतना आसान तो नहीं है

-अजय निगम

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11 JUL 2024 AT 12:06

बारिश में भीगा मैं देख रहा था
उस एक झोपड़ी को
जो भीग रही थी संग में मेरे....
मेरा रोम रोम उत्साही था
दाग थी मेरे रंग में वो....
तन मेरा तो भीग रहा था
अस्तित्व की थी जंग में वो
त्रिपाल की छत जो रखी हुई थी
सो रही थी अब पलंग में वो
कुछ सामान बचा था,
एक चूल्हा, दो कंबल, कुछ बर्तन
बांध दिए थे सब संग में वो
मेरा बस्ता भी भीग रहा था
भीग रहा था मन भी मेरा
सहमी हुई थी झोपड़ी वो
मेरी आरज़ू थी
बारिश और तेज हो

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