डियर~ सिंग
तुम असमान दौर हो सुलझे से,
अमिट राग यूं गढ़ती जाय,
कल अलबेली सांयकाल होगी,
तमन्ना तुम्हारी बढ़ती जाय।
किन्तु क्या मैं फिर भी प्रसांगिक रह पाऊंगा ,
उन उलझनों को जीत कर ,
हजारों किलोमीटर की रणनीति,
फिर इक बार बना पाऊंगा,
मेरी सुबह से पहले ,तेरी सुबह की रीत पुरानी,
सुनो मुझे केवल शब्दों में ,
स्निग्ध , धरोहर,
अमर कहानी-
मैं रूठा हुआ मंजर था तुम हौसलों से शम्मा लाती,
कानून - वानून मुझे क्या पता, कैंपस की रीतियां सुनाती,
अब हो गई हो तारीफें तुझे ज्यादा लेना नहीं होता ,
बूढ़ी हो रही हो अम्मा शादी क्यों नहीं करवाती।
ये जो धरा - बंधा है प्रेम राग ,
तुम काहुकों डरना,
टीचर बनने वाली हो ,
अब पार्टी - पार्टी ,मत करना ।
हरदम सीख की देवी तू सदा सलामत रहियो,
ज्ञान,सलाह -सम्मत में बिल्कुल आगे - आगे रहियो ,
हम दौर थे यह भी एक दिन पन्ना तुमसे पूछेगा,
बड़े सलीखे से सब्र रखना जवाब जरूर मिलेगा ।
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असंख्य है उन्मादों में मेरी चिंता चिता समान ,
किस दौर से ये कहानी चली थी ,
तुम सिरमौर हो गए,
मेरी ओर हो गए ,-
जब बरसात भीड़ में तन्हाइयों की छटपटाहट छोड़ देती है ,
कंधों की जिम्मेदारी , शरीर से साझेदारी कर लेती है,
उन भीड़ उन्मादों को घर का रस्ता जब पूछा मैंने,
मेरी आँखें , बंद दरवाजों को देखकर मुंह मोड़ लेती है
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" पोला - पटपरी क्रांति"
उलगुलान लब्जों से अज्ञात मांग रहे हैं,
रहवासी किनारों का इंतजार और कब तक ?
बेड़ियों में जिम्मेदारी दे दी गई क्या इसलिए!
लब्जों में चापलूसी,जीभ में लोकतंत्र लिए घूमते हो,
अंधियारे देखते ही सुखद ,उजालों में क्रांति - क्रांति कहते हो,
जिम्मे की सारी कवायदें, ईमानदारी की भीख मांग रही हो,
हम फिर भी बुजदिली की आदत लिए जिए जा रहे हैं,
अस्मत लूट आई है और कब तक इंतजार करोगे,
पिछले जनम से पूछेंगे तुम्हारी संताने की क्यों आए हम,
भीख मिल रही हो आजादी नहीं कहते उसे ,
जीत मिल रही हो होशियारी नहीं कहते उसे ,
आफत लबों में कई बार आएगी ,
नसें ऑक्सीजन भरने को थरथरा उठें हों,
गले में मीठे - खारे का स्वाद चला गया हो,
तब तक डटे रहे संघर्ष में अगर,
जागने का कायाकल्प चल उठेगा,
जिंदगी की रणभेरी उफान मारने लगेगी,
तुम्हारी नस्लें तुम्हें अपना अभिमान समझेंगे ,
तब तुम उलगुलान( क्रांति) के बन जाओगे।
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नारी नारी नारी मोर ,
नर नारी रे सुवा ना,
तारी नारी नारी मोर ,
नर नारी रे सुआ न ।
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कड़वा - कसैला ,
कुरूप - कठुआ,
मुर्दा दिल ,
जलता मन,
ठंडे बस्ते में तड़पता हुआ
" अंतर्मन"
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किन्हीं शब्दों में फिर उसका इंतजाम आया है ,
जिक्र आते ही आंसुओं में कोहर्रम,
होंठों में थरथरी सी रवानी लौटती है,
पलकों से ओझल होते सरसरी हवाओं को पता पूछा,
वही आई है या फिर सिर्फ उसका नाम आया है।-
मंजूर है मुझे मेरी आखिरी खत हो तुम ,
सीधा चला हूं ज़मीन,क्योंकि छत हो तुम।
मुझे गंभीरता से लेने की तुम्हें आदत नहीं है ,
डरता हूं मेरे भद्दे शक्ल से ,
कहीं लिखावट भर तो नहीं हूं,
स्याहियां मुझमें गिरी है या बनावट भर तो नहीं हूं,
किसी रोज खुदको खोजने पर,
संदेश वाहकों के जमावड़े तुम्हारा पता बता रहे हैं,
मैं सीमित, तिनके के सहारे लिपटा हुआ सा,
तुम्हारे इंतज़ार में टूटता जा रहा हूं,
आंखों की रोशनी वृद्ध हो रही,
शरीर स्वतः निर्ममता की ओर,
साष्टांग तुममें समाहित हो रही,
अंत मुझे ख्वाबों में फिर क्यों बनाए रखना ?
गर छल ही है प्रेम मेरा ,तो मन बनाए रखना।
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