मर्दों ने ख़्वाहिशों के साथ संघर्षों को भी जीया है
ख़ुद की शख्सियत को पीछे रख
हर चरित्र को संवारा है ....
विपत्तियों का पहाड़ हो या परिस्थितियां बेकार हो ...
जिम्मेदारियों का बोझ हर मौसम ही उठाया है
कोई समझें या ना समझे ......
भीतर के शैलाब को कभी
आंसुओ से नहीं छलकाया है ।।-
औरतों के जज़्बातों को भला कौन समझता होगा
मांग में सिंदूर के पहले ......
वो जो अपनी बगिया की तितली हुआ करती थी ।
बस एक सिन्दूर के मांगों में भर जाने से......
अब वो फ़र्ज़ और दायरे के तौर तरीकों में उलझी पड़ी रहती है।
वो जो अपनी जिद्द को मनाने के लिए...
मुंह फुलाकर रूठ जाया करती थी।
क्या अब उसकी जिद्द का मोल भी होता होगा क्या.....
उसकी पसंद नापसंद को फ़िक्र में लाने वाला..
उस घर जैसा, वहां भी कोई होता होगा क्या ।
एक लड़की से एक औरत के सफ़र में....
बस उसने अपनाना ही तो सिखा हैं ।
पर उसकी अंदर की शख्सियत और जज़्बातों....
को पहचानने का हूनर किसी ने दिखाया भी है क्या ।
बंद चारदीवारी में उन्हें उन जैसा,
भला कोई जानता भी होगा क्या.......
उनके ख़ुद के खयालातों और छीपि बंद मुस्कुरात से...
भला कोई मिलवाता भी होगा क्या।।
एक औरत के भितर गढ़ी उस मायूस लकड़ी की हसरतों को.....
भला कोई पहचानता भी होगा क्या ।।-
कि इतना आसान नहीं , जितना हम सोच लेते हैं
हर चीज को नाप-तौल कर , हकीकत समझ लेते हैं
हालातों के साथ जज़्बातों को बदल देते हैं
ज़िन्दगी कि कशमकश में,
हम खुद को बदल देते हैं
और जो ना आए समझ , फिर उसको छोड़ देते हैं..
हर अधूरी ख़्वाहिशों को , फिर सच के साथ तौल देते हैं
ज़िन्दगी के इस सफर में...
हम सदा ख़ुदको ही कोसते रहते हैं ।।-
बता दूं तो समझ पाओगे , क्या तुम....
जो ख़्याल और सवाल मन में आ रहे हैं
ये अहसास समझ पाओगे , क्या तुम...
इस बेकरारी भरें दिल की करारी....
तुमसे बयां कर सकूं , ये साहस जुटा रहा हूं
ख़त पे ख़त लिख कर... दिल पे इश्तेहार लगा रहा हूं ।
इज़हार तुमसे कितना मुश्किल है....
इस बात को दिल तक रखना....उससे भी मुश्किल हैं ।।-
जब यार निभा ना पाए तब
फ़िर दिल को सिकुड़ना पड़ता हैं
कशमकश दिल की फ़िर , ख़ुद समझाना पड़ता हैं ।
हैं ये कैसा.... मोह ये देखो
होकर भी..... एकतरफा
ये प्यार निभाना पड़ता हैं ।।-
मानों श्रृंगार कर मेहबूब की राहें तक रहा हो वैसे.....
मानों चमचमाता सूरज भी समां गया हो उसमें
मोहब्बत की हो रात और जुगनुओं का भी हो साथ
तारे भी टिमटिमा कर भ़ोर कर रही हो रात ।।-
शब्दों में ,मोहब्बत के अल्फाज़ ही महफूज़ हुआ करते थे
तेरी आरज़ू , तेरी तमन्ना , तेरा ही ख़्याल लिए फिरते थे ।
ना फ़िक्र थी मोहब्बत की ,
ना अंदाजेबयां का जिक्र था..
ना उल्फत के ग़म थे...
मोहब्बत के नशें में डूबे हम थे ।।-
तुमसे मिलकर कुछ अज़ीज़ सा लगता है
मानों यूं सब कुछ.. बेहतरीन सा लगता है ।
अभी चंद पल ही हुएं हैं तुमसे मिले
पर ना जाने क्यों ....
तूं ..दिल के बेहद नज़दीक सा लगता है ।।
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औरतों के जज़्बातों को भला कौन समझता होगा
मांग में सिंदूर के पहले ......
वो जो अपनी बगिया की तितली हुआ करती थी ।
बस एक सिन्दूर के मांगों में भर जाने से......
अब वो फ़र्ज़ और दायरे के तौर तरीकों में उलझी पड़ी रहती है।
वो जो अपनी जिद्द को मनाने के लिए...
मुंह फुलाकर रूठ जाया करती थी।
क्या अब उसकी जिद्द का मोल भी होता होगा क्या.....
उसकी पसंद नापसंद को फ़िक्र में लाने वाला..
उस घर जैसा, वहां भी कोई होता होगा क्या ।
एक लड़की से एक औरत के सफ़र में....
बस उसने अपनाना ही तो जाना हैं ।
पर उसकी अंदर की शख्सियत और जज़्बातों....
को पहचानने का हूनर किसी ने दिखाया भी है क्या ।
बंद चारदीवारी में उन्हें उन जैसा,
भला कोई जानता भी होगा क्या.......
उनके ख़ुद के खयालातों और छीपि बंद मुस्कुरात से...
भला कोई मिलवाता भी होगा क्या।।
एक औरत के भितर गढ़ी उस मायूस लकड़ी की हसरतों को.....
भला कोई पहचानता भी होगा क्या ।।-
अंधेरों की भी अलग ही कहानी है
जो वाकिफ हैं....
उनकी एक अलग ही जुबानी हैं-