Afzal Sultanpuri   (Afzal Sultanpuri)
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Joined 5 September 2017


Joined 5 September 2017
55 MINUTES AGO

18/10/20--

रब कि नेमत दिल कि दौलत इश्क़ ये ईमान है,
तू हमारी जान थी , बस तू हमारी जान है,

वाक़िआ कोई भी हो हाँ हादिसा कोई भी हो
तुमसे हमको इश्क़ है ये हर जगह ऐलान है,

तेरी आँखें देखनी हो या मुकम्मल देखना हो
करके वजू देखूं तुम्हें तू पाक वो रमजान है,

आखिरी लम्हे में मैंने देख ली सारी कशिश
तुम्हें मैं अब कैद हूँ तू मेरा जिंदान है

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AN HOUR AGO

अच्छे लम्हे गुज़र गए मेरे
अपने जो थे मुकर गए मेरे

आख़िरी मरतबा मिले जब से
घर के पंखे उतर गए मेरे

तू भी खुश रह तेरी कहानी में
सारे किस्से बिखर गए मेरे

मेरी ख्वाहिश है आख़िरी इतनी
सारे अपने तो मर गए मेरे

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29 SEP AT 23:39

तेरी पहलू से उठ के जाते हुए
रो पड़ा ज़ख्म मैं छुपाते हुए

तेरी हसरत यही थी मर जाऊँ
ज़हर लाया नहीं क्यों आते हुए

साथ में थी रकीब की फोटो
कितना खुश था मुझे दिखाते हुए

उसकी तक़दीर में नहीं था मैं
मुस्कुराती थी ये बताते हुए

हम मुसाफा करें गले न मिले
उसने आवाज़ दी बुलाते हुए

खून बहने लगे थे आँखों से
दास्तां हिज़्र की सुनाते हुए

ऐन मुमकिन है हल निकल आए
राह देता है आज़माते हुए

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29 JUL AT 19:16

ज़िंदगी इस तरह गुज़ारे हैं
मौत के जी रहे सहारे हैं

पाँव रखते ही फंस भी सकते हैं
ऐसी दरिया के हम किनारे हैं

आख़िरी मर्तबा मोहब्बत की
आख़िरी मर्तबा भी हारे हैं

आसमानों में धुंध छाई है
मेरी गर्दिश के ये सितारे है

मैं किसी काम का नहीं शायद
देख बेघर नदी के धारे हैं

लाल यूँ ही नहीं हुआ रुखसार
ये तमाचे हैं, ख़ुद को मारे हैं

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10 JUL AT 21:05

लगता हमें यही था फ़क़त हम हैं प्यार में
हम भी शुमार हो गए हैं उसके यार में

इक रोज़ पढ़ रहा था मैं उसकी कहानियाँ
ये भी ख़बर छपी हुई थी इश्तिहार में

वो लौटकर न आएगा लगता था ये मुझे
क्या मौत आयेगी मुझे अब इंतिज़ार में

तारीख़ याद है मुझे वो दिन था आज का
लब चूमकर कहा कि ये है यादगार में

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31 MAY AT 1:14

वक़्त के पीर में नहीं हो तुम,
मेरी तहरीर में नहीं हो तुम,

रोज आते हो मेरे ख़्वाबों में
मेरी ताबीर में नहीं हो तुम,

चूमकर हाथ मुझसे ये बोली
मेरी तकदीर में नहीं हो तुम,

गैलरी में हज़ार फोटो हैं
साथ तस्वीर में नहीं हो तुम,

तुम हमारी गिरफ्त में हो पर
मेरी ज़ंजीर में नहीं जो तुम,

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1 MAY AT 16:05

वक़्त के साथ-साथ चलते हैं
शाम होते ही घर निकलते हैं

कटघरे में खड़ा मिला राँझा
हीर बोली थी भाग चलते हैं

आपको क्या पता मोहब्बत का
आप तो चादरें बदलते हैं

उम्र की बात ही ख़सारा है
बर्फ़ जैसे क्यों हम पिघलते हैं

जिसकी हसरत थी वो नहीं हासिल
अब चिता संग हम भी जलते हैं

क्यों तक़ल्लुफ़ करें जहाँ भर की
इश्क़ में हाथ सब ही मलते हैं

उनसे अब बात भी नहीं होती
हम भी कमरें से कम निकलते हैं

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24 APR AT 13:18

उसकी तहरीर देख लेता हूँ,
सुर्ख शमशीर देख लेता हूँ,

मुझको तन्हाई देखना हो जब
राँझे में हीर देख लेता हूँ,

इश्क़ करने कि जो नसीहत दे
ऐसे कुछ पीर देख लेता हूँ,

दिल अगर इंकलाब करता है
अपनी ज़ंजीर देख लेता हूँ,

मुझको जन्नत भी देखना था और
सो मैं कश्मीर देख लेता हूँ,

फोन पर बात होनी मुश्किल है
उसकी तस्वीर देख लेता हूँ,

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14 APR AT 14:30

तुम्हारे शहर तो आता रहूँगा
मगर इस दिल को समझाता रहूँगा

हमारा फोन नंबर लिख के रखना
किया जब कॉल बतलाता रहूँगा

शहादत दो मुहब्बत एक से है
नहीं तो बात मैं दोहराता रहूँगा

मुझे तुम भूलने पर ज़ोर देना
तुम्हें जब याद मैं आता रहूँगा

रहूँगा दूर तेरी दस्तरस से
मगर तुमको नज़र आता रहूँगा

मुझे तुम छोड़कर जाओ कहीं भी
तुम्हारे ख़्वाब में आता रहूँगा

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31 JAN AT 21:30

आँखें बता रही हैं मोहब्बत तुझे भी है
चाहत बता रही है ज़रूरत तुझे भी है

इक रोज़ इस अज़ाब से बाहर निकल गए
उल्फ़त बता रही है अज़ीयत तुझे भी है

हम दोस्ती का हाथ बढ़ाते रहे मगर
फिर ये ख़बर हुआ कि अदावत तुझे भी है

गर्दन को चूमने का इरादा किया था मैं
फिर होंठ ने कहा कि इनायत तुझे भी है

दो चार दाँव खेल के मालूम ये हुआ
बिल्कुल हमारे जैसे महारत तुझे भी है

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