AdvocateSatyam Shivam Sundram Shukla  
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Joined 28 October 2018


Joined 28 October 2018

मुर्शिदाबाद से मालदा कों पलायन करता हिन्दू,
अपने ही देश में शरणार्थी बना हिन्दू.
विश्लेषण तो निष्पक्ष होता है,
हर बचाव का पक्ष होता है.
पर यहाँ केवल मरता हिन्दू,
पर यहाँ केवल पलायन करता हिन्दू.
हम टूटे विचारों में,
क्या यही हमारी गति है.
शायद हिन्दू होने की,
यही एकमात्र नियति है.

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जीवन तो अब -तब जाने को,
ज्ञान अनंत है पाने को.
सबकुछ नश्वर,
मृत्यु यही.
इस जीवन में,
घमंड करने जैसा,
कुछ भी नहीं.

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हम अपने-अपने हिस्से का कर्म जी रहे,
जीवन को घूट भर पी रहे।
शायद चलती रहेगी यह अनंत श्रिंखला,
या कही निश्चय ही अन्त भला।

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कितने साम्राज्य काल कलवित हुए,
कितने गर्व गलवित हुए।
समय साक्षी सभी का,
जो शेष वह अनुभव अभी का।

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विश्राम की आसक्ति ,
त्यागो पथिक।
अभी ,
बहोत दूर जाना है।

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कभी-कभी समय थम सा जाता है,
कभी-कभी प्रश्न भी अवचेतन मे कम आता है।
कभी-कभी बड़ी घटनाए भी
विचलित नही करती,
और कभी साधारण घटना मे ध्यान चला जाता है।

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जीवन मे कुछ बाते बहोत देर से समझ आती है।
बल्कि बहोत सी बाते बहोत देर से समझ आती है।
तब तक हम उम्र का एक बड़ा हिस्सा जी चुके होते है।
एसे मे एक सही 'मार्ग दर्शक' का होना आवश्यक है और वो मार्ग दर्शक व्यक्ति भी हो सकता है या किताबे या दोनो।

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जो काम , काम का नही ,
वो काम क्यूँ करु।
मै उसे नाम नही दे सकता,
तो बदनाम क्यूँ करु।

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हे कृष्ण! ,
अच्छा है तुम सहज नही साध्य हो।
अच्छा है,तुम मेरे आराध्य हो।
सब सरल तो प्रश्न कहाँ?,
जो सहज मिल जाये वो कृष्ण कहाँ?

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मै जानता हूँ,
तुम्हारे छल को।
किन्तु छ्ले जाने का,
नाटक करता हूँ ।
इसी बहाने,
स्वयंं के साथ घटित ,
घटनाओ की,
तटस्थ समीक्षा कर पाता हूँ ।
- - - स्वरचित

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