Aditya Sharma   (Aditya Sharma)
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I’m who I’m
Joined 8 February 2020


I’m who I’m
Joined 8 February 2020
1 MAY AT 13:08

सपने तो थोक में मिलते है,
पर हर किसी के सपने कहाँ खिलतें है?
परस्पर तो कर कोई महान होना चाहता है,
पर पेट भरने को अक्सर मज़दूर बन जाता है,
भिन्नता और मतभेद बड़े होते है,
कुछ दुख में, कुछ पहले से ही चमचे होते है,

सब कुछ छोड़ अलग हो जाऊँ,
सबसें दूर कहीं अचल हो जाऊँ,
सोचता तो हर कोई यही है,
पर अपना नवज़ात कहा भूखा देखा जाता है,
बस अक्सर यूहीं कर्म पूजा बन जाता है।

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30 APR AT 14:08

बोलतीं नहीं, बस बताती है,
भीग जाती है, पर फिर भी पन्ने पलट पाती है,
गहराइयों में अवसाद छिपा है, एक एहसास छिपा है,
कुछ क़िस्सो में तेरा-मेरा साथ छिपा है,
रटता हूँ, पढ़ता हूँ,
नित-रोज़ पन्ने पलटता हूँ,
पर समझ कहा आती है,
तेरी आँखों की किताब।

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30 APR AT 13:56

डर था, अवसाद था,
जीना भी मेरा एक अपवाद था,
घुन की तरह पीसता था, टूटें फ़व्वारे सा रिसता था,
पीसकर भी कुछ बीज छूटे रह गये,
फ़व्वारे की रिसवन से वो बीज़ अंकुरित हो गये,
अब हरियाली है मेरे उपवन में,
अब पंछी चहकने लगे है मेरे मन में,
अब मन में शब्द ठहरने लगे है,
अब अंधेरे महकने लगें है।

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25 APR AT 14:32

मेरी चाल है, मेरे ख्याल है,
मेरे सिमटे हुए जज़्बातों पर जैसें पहली बारिश की बैयार है,
मेरी पुरानी कविता,
मैं भी इस संसार में नीत रोज चलता हूँ,
घिसता हूँ, ढलता हूँ,
खुद से ही बातें करता हूँ,
खुद को बहला लेता हूँ, कभी-कभी गुनगुना लेता हूँ मैं,
मेरी पुरानी कविता।

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25 APR AT 14:15

अब इश्क़ नहीं हो रहा है,
बस बदनाम ही रहे है,
माचिस के ख़ाली ख़ाके जैसे है, फिर भी तिल्लियों को जलाने जैसे निशान बड़े है,
चिकनी मिट्टी से बना, मंद आँच पर सिका,
पानी तो शीतल करने का संचार बना है,
समंदर से डाल कर कुछ बूँदे मुझे सताते हो,
मटके को भी खारा करके, खुद के मन में मीठें-शीतल जल के भाव जगाते हो
अब इश्क़ नहीं हो रहाँ है,
बस यूहीं सरेआम हो रहे है,
कही थोड़े कम, कही थोड़े ज़्यादा
बस बदनाम हो रहे है,

अंधेरी रात में दीया क्यों नहीं साथ रखते हो,
जब एड़ी में चोट है तो लाठी क्यों नहीं अपने पास रखते हो,
मैं पथ पर गड्डा। ही तुम्हारी देन हुआ हूँ,
और जब गिरते हो तो अंधेरे तो नष्ट करने की बात करते हो,
वो नभ संचार है इसका, वो नवीन किरणों से वसुंधरा को सींचता है,
खुद के सिर में मोजूद अनगिनत लीख है,
और सूरज को झुलसाने की ग़नीमत दे रहा है,
अब इश्क़ नहीं हो रहाँ है,
बस बदनाम हो रहे है,
लोगो की नज़रों में कुछ निकम्मे और बुद्धि से तमाम् हो रहें है।

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25 APR AT 13:06

अगर इस संसार में किताबें ना होती तो मैं एक मूर्ख़ होता।

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25 APR AT 13:00

ताक़त का भूखा हर ओर ताक़त को ही है ताकता,
ताक़त के व्यूहचक्कर को सँभालने के लिए लोगों को झूठें सपनें है बटता,
कभीं मुद्दा ख्यालों का है, कभी जात-पात के रिसते छालों का है,
वहीं राज करने वालों की ज़ेब हमेशा भरीं रहती है, शासन कोई भी करे सोने की थाली हमेशा सजी रहती है,
ज़ैसे माधनी से मथ कर मक्खन अपने पास और बासी छाछ अपने अनुयायीओ के लिए रखता है,
अगर वोट देने से कुछ बदलता, तो यह वोट देने ना सौभाग्य भी तुम्हें नहीं मिलता,
ताक़तवर को ताक़तवर बनाए रखने के है यह ओट,
मात्र वहम् है तुम्हें,
एक वोट करती है चोट।

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20 APR AT 12:15

लिख तो मैं बहुत कुछ दू?
जैसे जड़ तो चेतना और सूरज को वेदना,
साहिल तो जीवन और फ़ूलो को संवेदना,

पर लिख देनें से क्या ही होता है?
कब किसी की प्यास से समंदर ख़ाली होता है?

कहने को तो हाथीं भी बलवान है,
पर क्या बल का प्रदर्शन करने वाला ही महान होता है?

कुछ टूटी-फूटीं डंडियाँ, कुछ ग़ैर-संरचनात्मक पगडण्डियाँ,
उनसे कुछ शब्द बनाते हो, पर हर शब्द की संवेदना कहा समझ पाते हो?

लिख तो मैं बहुत कुछ दू?
जैसे तुम्हें पापी और खुद के जीवन को महत्ता की संरीक्तियाँ।

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20 APR AT 11:37

हो निष्पाप अंधेरा या कोमल चाँदनी का साथ,
मद्यम बहता पानी या तपती आग का अलाव,
नितांत अकेला मैं या हो कोई चंचल लोगो का गाँव,
बस मिले लंबी सी इक रात…..
जहाँ हो सके खुद से खुद की कुछ बात।

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20 APR AT 11:29

एक पल में क्षीण हो जाती है,
पर जब आती है, किसी उत्सव सी जगमगाती है,
कही कल-कल बहती है,
झुरमुट में कहीं ची-ची करती रहती है,
नव-यौवन कहीं बंद मुट्ठी में रहती है,
कहीं लताओ से लिपटी मधुर महक की बयार से बहती है,
कोई भेदभाव नहीं कोई अभाव नहीं,
ज़िंदगी तेरे कोई और विकल्प का चुनाव नहीं,
इस वसुंधरा के हर रूप तेरा बसेरा,
स्वागत है ज़िंदगी तेरा।

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