साहब! वो मजदूर तो, एक शहर को, शहर बनाने गया था
झूठा इल्ज़ाम लगा है उसपर, कि वो शहर सिर्फ कमाने गया था
उसके भूखे पेट, खुद दो वक़्त की रोटी जुगाड़ नहीं कर पा रहे थे
बस इसीलिए, वो अपने घर से दूर, इस जालिम भूख को मिटाने गया था
अब क्या गलती थी उसकी, जो चाहा, बच्चे उस जैसा ना बने
उन्हें स्कूल भेज कर, वो शहर, भट्टी में, खुद को पकाने गया था
उसे कोई टाटा, बिरला नहीं बनने की ख्वाहिश नहीं थी
वो तो महज़, अपने बच्चों की जरूरतें पूरी कराने गया था
उसे रोटी, कपड़ा और मकान चाहिए था सिर्फ
वो बेकसूर मजदूर शहर, अपनी ज़िन्दगी बचाने गया था
रिश्ता गाँव से तो, अब भी वैसा ही मजबूत था, उसका
बस ढंग से जीना का वादा, पिता ने लिया था उससे, वो बस उसे निभाने गया था
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