यूँ ही नहीं....
ख़ुद को सारे जहां से मुक्तलिफ़ 'बना' चुका हूँ मैं,
तुम्हें और तुम्हारी यादें, कब का भुला चुका हूँ मैं।
अब तरसती नहीं निगाहें तेरे आने के इंतेज़ार में,
सिर्फ चेहरा ही नहीं, तेरी तस्वीर भुला चुका हूँ मैं।
ना तेरी रूहानियत का नूर मयस्सर है इस दिल में,
बदस्तूर तेरे दिए हर ज़ख्म, मौजूद हैं ज़ेहन में मेरे,
मुसलसल ज़ख्म-ए-दर्द, तो कबका मिटा चुका हूँ मैं।
वो मासूमियत वो पागलपन, अब बेअसर है मुझपे,
तन्हाई के मंज़र में, ख़ुद को गले लगा चुका हूँ मै।
देख ले क़ुरबत से ए अज़नबी तुझसे और.......
तेरी इश्क़ से वाबस्ता हर लफ्ज़ मिटा चुका हूँ मैं
-आदित्य-
सुन रहा हूँ ख़ुदको यूँ, जैसे ख़ुद की ओर हूँ...
एकांत सी रात्रि में, अनन्त स्मृतियों से सराबोर हूँ।
भावशून्य हूं अभी, अभी अत्यंत भाव विभोर हूँ,
उलझ गया हूँ खुद में ही, खुद उसी का छोर हूँ।
ख़ुद ही खुद से रुष्ठ हूँ, जैसे कोई और हूँ,
वीभत्स मेरे वाक्य हैं, विरक्त सा मैं शोर हूँ।
बह रहें इन अश्रुओं की चक्षुओं का कोर हूँ,
भयभीत हूँ रात्रि से, मानो चंद्रमा का चोर हूँ।
आश्वस्त आशातीत सा कल सुबह की भोर हूँ
हाँ सुन रहा हूँ ख़ुदको मैं पूर्णतः.......
प्रथम बार ख़ुद ही ख़ुदकी ओर से
-आदित्य-
वो भावभीनी, वो अनुकरणीय, वो छंद रसों की जननी है,
वो कालांतर से काव्य- श्लोक में, सदा रही अलंकर्णीय हैं
वो प्रेमचंद की कृतियों सी, आज भी आचरणीय है।
वो कर्णप्रिया सी मनुस्मृतियों में, हमें रही विस्मरणीय है
वो प्रेम-विरह, वो करुण-हास्य, वो व्याकरण की वैतरणी है
वो आधारभूत है वात्सलया की, परम् पूज्य आदरणीय है।
वो भाषा के नवजीवन की, प्रकाशमयी कालिंदी है,
वो नहीं कोई और नहीं, मेरी मातृ भाषा "हिंदी" है-
बेवज़ह यूँ ही,
किसी मासूम चेहरे पर, एक छोटी सी हँसी लाया करो,
कुछ "अपनो" को बेवक़्त ही, जबरन फ़ोन मिलाया करो
वो छोटी मोटी गाँठे ना मन की, झटपट ही सुलझाया करो
रुठ जाएं ना जो कोई तुमसे, तुरंत ही उसे मनाया करो
इन छोटी-मोटी बातों को, यूँ दिल से ना लगाया करो
अपने मीठे शब्दों से, किसी रूह को सुकून दिलाया करो,
कभी निकालकर वक़्त यूँ, माँ-बाप संग शाम बिताया करो,
कुछ उनकी भी सुन लिया करो, कुछ अपनी भी सुनाया करो
जो ख़्वाब अधूरे रह गए होड़ में, उनको पूर्ण बनाया करो,
यूँ ही कभी तुम बेवजह ही...
खुद को ख़ुद से, थोड़ा और करीब लाया करो।।
-आदित्य-
मैं टूटी हुई क़लम से, इश्क़ बेपनाह लिखता हूँ,
उस टपकती हुई स्याह से, मेरी चाह लिखता हूँ
ज़िक्र करता नहीं तेरे नाम का, सामने सभी के,
ख़ामोशी से ये किरदार तेरे, सरेराह लिखता हूँ।-
घण्टों बैठकर फ़ोन में तुम, क्या सच्चे दोस्त बना रहे ?
या बुरे वक्त पर अपने तुम, मैसेज की संख्या बढ़ा रहे
ये बेबाक प्रदर्शन धन- काया का, बेवजह ही करते जा रहे।
तारीफें पाकर झूठ मूठ की अपनी ,ख़ुद को मूर्ख बना रहे।
चंद पलों की खुशियों की ख़ातिर, ये पूरा जीवन बहा रहे
फँस कर प्रदर्शन की होड़ में प्यारे, अपनी चिता जला रहे।
गलतियां को किसी और कि तुम खुद ही ढोते जा रहे,
गुमकर झूठी खुशियों में, तुम खुद को खोते जा रहे
आखिर क्यूँ मानव तुम, इस दलदल में धँसते जा रहे
हँसा हँसाकर दुनिया को, तुम छिपकर रोते जा रहे।-
क्या खूब नज़ारा है ना, हमारे प्यारे ज़माने के लिए
लोग सबकुछ बटोर रहें हैं, खाली हाथ जाने के लिए
कइयों के घर तोड़ रहें हैं, खुद का आशियाँ बनाने के लिए
साख़ और रौब दिखानें, ख़ून की नदियां बहाने के लिए
धर्मों के नाम पर मज़लूमो को, आपस मे लड़वाने के लिए
किसी की इज़्ज़त का दाम, भरे बाज़ार लगाने के लिए
उन्ही चंद से रुपयों में, ज़मीर बेच खाने के लिये,
दूसरों को नीचा, केवल ख़ुद को ऊपर दिखाने के लिए
सामने तारीफ़ करके, पीठ पीछे जमकर खिल्ली उड़ाने के लिए
समय आने पर अपनों पर ही, पीछे से खंज़र घुसाने के लिए
दूसरों के निवाले छीनकर, ख़ुद की भूख मिटाने के लिए
ख़ुद का वंश बढ़ाने को, बेटियां गर्भ में गिराने के लिए
बेवजह ही बेहिसाब फ़रेबी, शौहरत कमाने के लिए,
ख़ुद की मौत पर, परायों की झूठी भीड़ जुटाने के लिये
और ये सबकुछ......
"सिर्फ़ और सिर्फ़ खाली हाथ जाने के लिए"।।।
-आदित्य-
अपने हसीं पलों से, कुछ वक़्त निकाल सको...तो बताना,
ये बिगड़े हुए हालात, फिर सम्भाल सको...तो बताना,
पूछते हो ना हर रोज़ खैर मेरी,बिन कहे मेरा हाल जान सको... तो बताना,
तीर-तरकश तानों की जंग में, मेरी ढाल बन सको...तो बताना,
रोज़ ही चलतें है अकेले राहों पर, तुम साथ चल सको ...तो बताना,
यूँ तो हर रोज़ ही बुराइयाँ करते हो मेरी, गैरों से
मेरे व्यक्तित्व में कुछ अच्छाइयां निकाल सको...तो बताना,-
इजाज़त हो तुम्हारी, तो तुमसे कुछ कहूँ क्या?
कुछ अनकहे अहसास, अल्फ़ाज़ों में बयां करुं क्या?
बेवक़्त, इस रात्रि में, वो यादें ताज़ा करूँ क्या?
तुम्हारी बेबाक सी मुस्कुराहट की, फ़िर से वजह बनूँ क्या?
तुम्हारी एक झलक के लिए, थोड़ी मिन्नत करूँ क्या?
वो बेवजह ही तुमसे रूठकर, तुम्हारे मनाने का इंतज़ार करूँ क्या?...
-आदित्य
-
निकल पड़े हैं कुछ लोग, शख़्शियत बिगाड़ने मेरी,
की किरदार उनके ख़ुद, मरम्मत की मांग करते है।
ख़ुद की ज़िन्दगी संभलती नहीं इनसे, सीधी तरह
और हमें जीने के तरीके, सिखाने की बात करतें हैं।
सुना है, महफ़िलो में ख़ूब बुराइयाँ करते हैं मेरी, और
कमबख़्त हमारे ही नाम पर तालियों की मांग करते है।
-आदित्य-