मैं बैठी हूँ उस चादर को लिए,
जिसको सर्द रातों में ओढ़े हम बैठे थे।
मैं जागी हूँ उन सवालों के खातिर,
जिनके जवावो से तुम अक्सर मुकरा करते थे।
मैं बैठी हूँ उन आंसू को पोछे,
जो तब तेरी ख़ातिर बहा करते थे।
मैं हसती हूँ उन वादों के ऊपर,
जिनको जान कर हम तोड़ा करते थे।
मैं बैठी हूँ अब इक सोच में,
आखिर क्यों हम ये झूठे वादे किया करते थे।
मैं बैठी उस सच को देखने एक पल को चली,
जिसको तूने अपनी आँखों में छिपाया था।
मैं न जाने कहाँ गुम हो गई,
इन नसीली आँखों में कहीं चूर हो गई।
मैं बैठी थी, उस जादू को देखने
जिसको तुमने अब पागलपन कह दिया।
मैं बैठी थी, उस शाम भी,
एक आस को दफ़न करने।
मैं बैठी हूँ, आज शाम भी,
एक उम्मीद की किरण देखने।
न जाने तू कहा गुमनाम है अब,
न जाने तू कहा माशरुफ है अब।
मैं डर गई इस हकीकत को देख कर
तू जहाँ था वहाँ सब तेरे गुलाम थे अब।।२
*अदिती_गुप्ता*
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