दिन ढलते देखा, तो तू याद आया
मौसम बदलते देखा, तो तू याद आया।
मैख़ानों में गुज़री थी पहले भी शामें,
पैमाना बदलते देखा, तो तू याद आया।
तड़पती जो शबनम सिर्फ़ सहर के इंतज़ार में,
आज फूलों में मचलते देखा, तो तू याद आया।
राहों में मिलते हैं लोग रोज़ सिर्फ़ मतलब से,
किसी का दिल फिसलते देखा, तो तू याद आया।
ख़ारा है समंदर, ग़िला तो हर क़तरे को है,
नदियों को फिर मिलते देखा, तो तू याद आया।
ज़मीन को सुकून देती होंगी सर्द रातें,
पर चाँद को जलते देखा, तो तू याद आया।
सुरूर था कहाँ ख़ुशी का, कहाँ मुझे ग़म का नशा,
खेलते बच्चों को हँसते देखा, तो तू याद आया।
हर गली में भटक कर मुड़ते थे दीवाने क़दम,
इक सीधी राह पे चलते देखा, तो तू याद आया।
आज गिरे तो कोई हाथ था ही नहीं थामने को,
ख़ुद को संभलते देखा, तो तू याद आया।
तेरे बाद किसी पे ये दिल फिर आया ही नहीं,
तन्हा उम्र को निकलते देखा, तो तू याद आया।-
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इंकार करता नहीं, इकरार भी ना शामिल है
ऐ दिल, तेरी ये कैसी मुश्किल है
मेरी हालत पे शायद पिघलता हो वो भी
बयान-ए-हाल की आग से जलता हो वो भी
दुखता क्यूँ बस मेरा सीना, उसके पास भी तो दिल है
ऐ दिल, तेरी ये कैसी मुश्किल है
उसे कहते सुना कि उसे कुछ याद नहीं
ये मजनूँ इश्क़ मेरा इतना भी बर्बाद नहीं
पानी सा लगता रहा, जो पत्थर हो जाने में कामिल है
ऐ दिल, तेरी ये कैसी मुश्किल है
कभी उन निगाहों में मेरा ही खुमार था
जब इन बाहों में उसे मीरे करार था
अब इश्क़ वो कहता नहीं, या ये इंसान ही जाहिल है
ऐ दिल, तेरी ये कैसी मुश्किल है
हिस्से आई इंतेज़ार को घर करके देखा
डूबने को दर्द-ए-दरिया में उतर के देखा
अब तो आलम की मोहब्बत भी जैसे बे-साहिल है
ऐ दिल, तेरी ये कैसी मुश्किल है
हक़ीक़त तुझे अब रास नहीं, या तू ही ना-काबिल है
ऐ दिल, तेरी ये कैसी मुश्किल है
ऐ दिल, तेरी ये कैसी मुश्किल है...-
उसे देखा, तो फिर पाने का दिल हुआ।
चाहा तो सब छोड़ जाने का दिल हुआ।
ख़्वाब तो मेरे थे ही नहीं कुछ उसके बग़ैर,
आँख खुली तो हर नज़र लुटाने का दिल हुआ।
संगमरमर सा चेहरा, समंदर सी आँखें,
देखा उन्हें तो, अपनी सूरत भूलाने का दिल हुआ।
कभी सजदा करता था मैं भी मज़ारों में,
पर उसके लिए हाफ़ीज़ हो जाने का दिल हुआ।
नशा उसका कुछ यूँ की ज़ेहन से उतरता ही नहीं,
इसी जुनून में डूबे सोदाई हो जाने का दिल हुआ।
एक दफा वो ख़ैरियत पूछे तो क्या ख़ूब हो जाऊँ मैं,
उसके हर ज़ख़्म पे मरहम हो जाने का दिल हुआ।
उनकी चाहत से भी किसी पर्दे में न था मैं,
ग़ैर-महबूबियत पे भी मोहब्बत लुटाने का दिल हुआ।
उसे किसी और की अमानत बने मुद्दत हुई,
पर आज उसे देखा ... तो फिर पाने का दिल हुआ।-
निकलती है आह! वो गली से जब निकलती है,
एक हूर है, बन संवर कर निकलती है।
शुक्र करते नहीं थकते सारे शेर वाले,
जो ये राह उसके घर को निकलती है।
हुस्न ओढ़कर वो जब गुलज़ारों से निकलती है,
फूलों से खुशबू उसकी सी निकलती है।
हैरत नहीं होती हमें जो हम देखते हैं,
पूरे चांद की सूरत उस चेहरे सी निकलती है।
दम तोड़ती है शामें उसे निहारते आंगन में,
हर सुबह उसकी देहलीज छूकर निकलती है।
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खुश होने से अब डर लगता है,
पुराने तजुर्बों का असर लगता है।
होने को तो सच हैं सारी बातें,
फरेब सा सब मगर लगता है।
ख़्यालों से भी कहीं दूर हैं अब वो दिन,
टूटता मेरा सबर लगता है।
सोचता हूँ कौन देगा मेरा साथ इतनी देर,
बहुत लंबा ये सफ़र लगता है।
ज़ोर से थाम लेता हूँ अपना दिल,
कुछ खुशनुमा सा अगर लगता है।
खौफज़दा इतना है इंसाँ हालात से,
उसका दिया अमृत प्याला भी ज़हर लगता है।-
दिन बंजर कोई रात भी आबाद नही है
हैरत ये है की तुम्हे कुछ याद नही है
तुम्हारी दुआओं में कोई तो रहता होगा
इस हताश दिल की अब कोई मुराद नही है
बिखर्ने को है इश्क़ मकाँ कुछ झोकों में
तेरे बाद हिम्मत की बुनियाद नही है
आँखें कब हुई थी नम कुछ ध्यान नहीं आता
अब कोई अब्र-ए-सियाह भी इतना याद नही है
जी लेते हैं सब किसी को गले लगाकर
मुझे तो सुकूँ भी तुझपे मिटने के बाद नही है
एक तरफ तेरा जहाँ जिसमे इतनी खुशीयाँ
एक मेरा खालीपन जिसमे कोई शाद नही है-
सुना बा बाबूजी के अंगुरि, दादा जी के कन्हवा
माई के अचरवा, बगीचवा के अमवा
जबसे छोड़ीके गईल बाड़ बाबु तु घरनवा
सोची-सोची ना रोहिय सुखल जाए परनवा
रोजे तु बतावत रहिय खाईल की नाही खनवा
ना होई त लौट अहिया परब पे अंगनवा
छोड़ीके गईल बाड़ बाबु तु घरनवा
सुना-सुना होत जाता तोहरे बिना कनवा
केहु ना पुकारे माई, ना सुनाता बाबूजी के तनवा
अबेर भइल गईले तोहरा, पर माने नाही मनवा
छोड़ीके गईल बाड़ बाबु तु घरनवा
घरवा के दुअरवा, गऊँवा के उ यरवा
बईठल-बईठल सोचत रहें कब छोड़ीके अईब सहरवा
बाबू तोहरे बिना नाही होई हमनी के गुजरवा
छोड़ीके गईल बाड़ बाबु तु घरनवा-
है शाम किसी और की तो रात कैसे मेरी होगी
जगा सा है एक ख़्वाब खैर सोने में कितनी देरी होगी
गमगीन होने का है मेरे पास कोई सबब नहीं
वो थी ही कब अकेली जो अब सिर्फ मेरी होगी
है ठीक यही की मुड़ जाऊँ वापस मैं अपने घर को
जब रास्ता ही है इतना ग़ैर तो मंज़िल खाक सुनहरी होगी
जाने-अनजाने अपने ज़मीर से बेवफ़ाई भी हो ही गई मुझसे
चलो बदहवासों के बज़्म में सहीं! एक नज़्म मेरी होगी
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तुम नहीं मिले, तुम्हें ढूँढता रहा फिर भी
ज़माने गुज़रे ज़माने हुए पर दिल तुमसे गूँजता रहा फिर भी
आहट से अब भी नींद खुल ही जाती है आस में
तुम कभी नहीं मिले पर मैं ख़्वाब बुनता रहा फिर भी
ज़ाहिर है कुछ वक़्त और लगेगा मिलने में तुम्हें
सब कहते रहे भूल जाऊँ, मैं पल-पल गिनता रहा फिर भी
पैमानें बदलते रहते हैं रात भर इंतज़ार में
आरज़ू में सारे दीवाने बदलते रहे, मैं मैकदें में मिलता रहा फ़िर भी
खालीते में मेरे ना तेरी तस्वीर है ना ही पता
ख्वाबों में भी तेरा चेहरा धुंधला है पर मैं आँखें मुँदता रहा फिर भी
लगा अकेले में मिलने में ऐतराज़ हो तुम्हेँ शायद
तुम भीड़ में भी नहीं मिले, मैं तुम्हेँ ढूँढता रहा फिर भी
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ख़ाली ख़लीते मे मेरे ख्वाबों के सिवा रखा क्या है
चंद मुट्ठी भर यकीन के अलावा अब बचा क्या है
वो पुरानी ख्वाइशें फ़िर आँखों में आयेंगी कैसे
मेरी नई आदतों में कुछ खासा अच्छा क्या है
चार दिवारिओं में छोड़ आया हुँ हक़ीक़त अपनी
इस नए सहर के फँसाने में जाने ऐसा नया क्या है
निकला हूँ आजमाने सारे बे-बुनियाद मख़मूरियों को
मेरा चेहरा बद-हवासि के नक़ाब में अभी सजा क्या है
ठहर के सोचने का ख़ुदको वक़्त भी कहाँ देता हूँ
ज़िंदगी के ऐसे दस्तूर में वक़्त से होता क्या है
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