Achyutam Yadav   (अच्युतम यादव 'अबतर')
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Joined 17 December 2019


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10 HOURS AGO

ये बात YQ पे मुझ जैसे जितने भी उभरते हुए शायर हैं उनके लिए है। मैंने देखा है कि ज़्यादातर लोगों ने नाकाम सर की lines मानो रट ली हों। उनके सिद्धांत पे चलने की बातें करने लगते हैं मगर सच कुछ और ही है। इसका जवाब आपको ख़ुद मिल जाएगा।
मैं वैसे भी अब ज़्यादातर वक़्त अपने ब्लॉग पर बिताता हूँ क्योंकि मैं ख़ुद एक community बनाना चाहता हूँ जो धीरे-धीरे बन भी रही है। कृपया एक जैसा उसूल हर मौके पे दिखाएँ बाक़ी काम तो पहले है ही। अगर आप नाकाम सर के उसूलों पे चलने की बात करते हैं तो चलिए भी वरना उन्हें ये सब जानकर दुख होगा। बाक़ी इस विषय पर मेरी राय नाकाम सर से थोड़ी अलग है तो मैं ज़ियादा नहीं बोलूँगा।

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15 JUL AT 19:47

इतनी बरकत मुझे अता न करो
करनी भी हो तो बारहा न करो

वो तुम्हारे ही राह की हो तो ठीक
हर मुसीबत का सामना न करो

तोड़ कर देखना जो कुछ भी मिले
रिश्तों में ऐसा बचपना न करो

अपनी मंज़िल पे मैं पहुँचता नहीं
मेरे नक़्श-ए-पा पे चला न करो

हिज्र से मुझ को मर ही जाने दो
मेरे इस दर्द की दवा न करो

कुछ तो ख़ुद्दारी है अँधेरों में
रौशनी भीक में लिया न करो

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11 JUL AT 18:23

फिर से मुझ को डुबो दी 'अबतर' तन्हाई की एक नई लहर
मैं सोचा कि मुहब्बत करके ये दरिया हो जाएगा पार

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10 JUL AT 11:18

भर दो मेरे मक़बरे को और फूलों से ज़रा
है ख़फ़ा मुझ से फ़ना उसको मनाना भी तो है

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8 JUL AT 13:21

जो पाया वो लकीरों में नहीं था
मैं रब से भी बड़ा नक़्क़ाश निकला

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7 JUL AT 18:54

मुझे बनना है उसके जैसा और उसको मिरे जैसा
हूँ इक ऐसे सफ़र में जिसमें मंज़िल ख़ुद मुसाफ़िर है

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7 JUL AT 18:40

इश्क़ में भी ज़हर होता है निहाँ
लीजिए इसको दवा की तरह ही

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2 JUL AT 13:39

तुम्हें इल्म होगा, मगर धीरे-धीरे

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24 JUN AT 17:52

मरहले हो जाते हैं सब ख़ाक मेरी ज़िंदगी के
मैं तमाशे पे तमाशा देखता हूँ बे-दिली के

कोई कितना भी हो सुन्दर, ख़ामियाँ होती हैं सब में
हद समझते क्यूँ नहीं हैं लोग इस जादूगरी के

ये भले ही फूल जैसे हों मगर धोका न खाना
भूलना मत ये कि ये बेटे हैं आख़िर ख़ार ही के

ख़ौफ़ खाते थे कभी ख़ुद ही समुंदर इससे लेकिन
काट डाले हैं किसी ने पाँव इस ज़िद्दी नदी के

तुमको तो बेज़ार होते देखा है मैंने मिरे दोस्त
क्यूँ गिनाए जा रहे हो फ़ायदे तुम आशिक़ी के

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18 JUN AT 4:13

"वो चेहरा"

ग़मज़दा शब में वो चेहरा
मेरे दिल के कहकशाँ में
यूँ चमकता है किसी तारे की मानिंद
नूर बे-माना नहीं जिसका कहीं से
मेरे चेहरे पे चमक है जिस ज़िया से
चोट तारीकी को करती है मुसलसल
ऐसी तारीकी कि जिस में
दफ़्न है मेरी तजस्सुस
कोई चेहरा देखने की
कोई अपना ढूँढ़ने की

पर ये तारा दस्तरस में ही नहीं है
रौशनी से इसकी कब तक और बहलूँ
फिर सवेरा होगा और फिर
मैं उसी तारीकी में ही
घुट के रह जाऊँगा आख़िर

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