अभिषेक मिश्रा   (अभिषेक मिश्रा)
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Joined 29 May 2017


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Joined 29 May 2017

सुख़न में एक ऐसे मोड़ पर आकर खड़ा हूँ मैं
कि अच्छे शे'र तो होते हैं पर राहत नहीं होती

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अच्छा ख़ासा पेड़ उखाड़ा रक़्स किया
हमने सारा जंगल मारा रक़्स किया

सारी उम्र बिताई हमने रोने में
और कज़ा का देख नज़ारा रक़्स किया

महफ़िल तो जैसे मानों गुलज़ार हुई
इक जोगन ने ऐसा सादा रक़्स किया

कैसे कैसे काटा जीवन क्या बोलें
हमने रोते रोते यारा रक़्स किया

धरती अपनी छाती पीट के रोती गई
हमने उसको ख़ूब निहारा रक़्स किया

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सफ़र मुश्किल है साथी पूछ मत कि क्या नहीं होगा
कभी मंज़िल नहीं होगी कभी रस्ता नहीं होगा

कोई इक छूट जाएगा हँसी के इन किनारों में
कभी प्यासे नहीं होंगे कभी दरिया नहीं होगा

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बिछड़ते वक़्त क्या गालों पे बोसा तक नहीं आता?
तुम्हें तो छोड़ जाने का सलीक़ा तक नहीं आता

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कभी आवाज़ देकर लौट आने को कहेगा वो
मैं इस उम्मीद में घर से बहुत आगे निकल आया

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ख़्वाब में ख़ुद को तितली देखा और
फिर नींद से जाग गए
तब से सोच रहे हैं हम सच हैं या
तितली ख़्वाब में है

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हमारा लाल तेरे हाल पे है ऐ चंदा
तुझे कसम है तू उसका ख़याल रक्खेगा

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सामने है हमारे खड़ा आईना
है कहानी से बिल्कुल जुदा आईना

तुमने पत्थर चलाने में सोचा नहीं
मुझको उम्मीद थी बोलता आईना

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इस बेफ़िक्र सी दुनिया को जब जब देखें तब लगता है
हम दुनिया को समझ में आने से पहले मर जायेंगे

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ख़ुदा से मिल के आया हूँ अभी मैं
वो अच्छा है मगर तुझ सा नहीं है

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