अभिषेक मिश्रा   (अभिषेक मिश्रा)
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Joined 29 May 2017


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Joined 29 May 2017

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होठों से अब तक भी खुश्बू आती है
हाय ये मैंने किसका माथा चूम लिया

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(अनुशीर्षक में पढ़ें)

~ अभिषेक मिश्रा

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नई सड़कों को बनता देखता हूँ और हँसता हूँ
मुझे ये देख कर वादे तुम्हारे याद आते हैं

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ख़ुद को करूँ तबाह ये हिम्मत नहीं हुई
मैं ही तो हूँ कि जिस को मोहब्बत नहीं हुई

वो ही उदास रात है वो ही उदास दिन
लगता है इस शहर की मरम्मत नहीं हुई

कितना संभल संभल के चल रही हैं आँधियाँ
इतना कि दरख्तों को भी आहट नहीं हुई

तू जा चुकी है तब भी तुझे हूँ पुकारता
मुझको अभी इस बात की आदत नहीं हुई

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मैं होऊँ शाम बनारस की,
तुम गंगा आरती घाट बनो।

(अनुशीर्षक में पढ़िए)

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भाई, बेटा, पति,तो किसी
का मीत घर आया है,

सब खुश हैं, एक फौजी
जंग जीत घर आया है।

#respect_soldiers

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तुझमें ज़िन्दगी ढूंढ़ते ढूंढ़ते
हम जीना ही भूल गए
अपनी हिचकियों में तेरी याद तलाश रहे थे..
पानी पीना ही भूल गए

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सुख़न में एक ऐसे मोड़ पर आकर खड़ा हूँ मैं
कि अच्छे शे'र तो होते हैं पर राहत नहीं होती

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जितनी हद थी उतना देखा जितना देखा ठीक लगा
हमको अपनी दो आँखों से हर इक बंदा ठीक लगा

वो कहती थी कोई शय हो ठीक जगह पर लगती है
हमको भी होठों को होठों पर ही रखना ठीक लगा

घर पर बैठे सोच रहे थे रस्ता कितना मुश्किल है
घर से जब बाहर निकले तो मुश्किल रस्ता ठीक लगा

ठीक हुआ कुछ हाल हमारा जब हमने खिड़की देखी
फिर जब तुम बाहर आए तो और ज़ियादा ठीक लगा

कमरे से बाहर की दुनिया को देखा तो चौंक पड़े
हमको ऐसी दुनिया से तो अपना कमरा ठीक लगा

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