कहते कुछ थे करना कुछ था
उस जीने में मरना कुछ था
सोच समझ के कहाँ चले हम
चली डगर सो वहाँ चले हम
जिद गुस्सा और मान मनौवल
हुए संग परवाह किसे थी
खामोशी ने सब कह डाला
लफ़्ज़ों की दरकार किसे थी
कोरे खत जो पढ़े निगाहें
पलक उठें और फिर झुक जायें
चंद बूँद कर गईं फैसला....
उन पन्नों में भरना कुछ था
कहते कुछ थे करना कुछ था
उस जीने में मरना कुछ था....
(तप्त चंदन)
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अधूरा इश्क़ बहुत कुछ सिखा जाता है
आईना टूट कर कई चेहरे दिखा जाता है
अफसाने जिन्हें दुनिया तमाम पढ़ती है
वो तो अक्सर तन्हा ही लिखा जाता है-
बहुत फुर्सत तमाम गुबार घेरे है
मुद्दतों बाद कोई ऐतवार घेरे है
मैं चल रहा था तो कहाँ पता था कहाँ दर्द कितना है
जो ठहर गया हूँ तो अब थकन हज़ार घेरे है-
मैं आईना हूँ कुछ भी जमा करके नहीं रखा
सब कुछ लुटा दिया कुछ कमा करके नहीं रखा
जो टूट गया तो खामोश सिर्फ काँच......
अपने दिल में कुछ भी समां करके नहीं रखा
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मुझे लिख दो और निखर जाऊँ मैं
इक लम्हा हूँ शायद बिखर जाऊँ मैं
आगे वक्त का इक लम्बा सफर बाकी है
क्या पता किस मोड़ पे किधर जाऊँ मैं
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आईने पे पड़ी धूल हटाई न जाएगी
अब फिर से नई शक़्ल पाई न जाएगी
हमने लुटाई है जो दौलत तमाम उम्र
इस मोड़ पे वो फिर से कमाई न जाएगी
(तप्त चंदन)
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मेरी किताबों में कुछ तलाश रही है
वो इक रूह जो मेरे आसपास रही है
हैरान बहुत है वो गीले सफों को देख
भला कैसे मैंने इतनी प्यास कही है
(तप्त चंदन)
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यूँ ही गुजर जाएगी इक तौर जिंदगी
खामोश बेजुबान इक दौर जिंदगी
मत पूँछ तजुर्बे मेरी इस टूटी कलम से
कागज़ पे उभर आए न इक और जिंदगी
(तप्त चंदन)
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बहुत दिनों में उतरी औ जुबां पे आई
शाम की बात कोई आज सुबह पे आई
तुम जिसे कहते हो नई लगती है
बिकी कोई चीज़ लौट दुकां पे आई
बहुत दिनों में उतरी.......
हम तो अपनी ही सूरत भुलाये बैठे थे
तमाम मजबूरियाँ ओढ़े बिछाये बैठे थे
ढली सर्द किसी ने पर्दे उठा दिए थे जरा
तो छनके कुछ धूप मेरे मकां पे आई
बहुत दिनों में उतरी------
मैंने चाहा बहुत पर चिराग़ बुझा न सका
अपने अंधेरों को मैं रौशनी तक ला न सका
बुझा चिराग मुझे चौखटों तक ले आई
न जाने कहाँ से ये हवा शमां पे आई
बहुत दिनों में उतरी.......
(तप्त चन्दन)
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