शिक्षक कोई बंधुआ मज़दूर नहीं हैं।
लेकिन अफ़सोस की बात है कि देहरादून के कई तथाकथित प्रतिष्ठित डे-स्कूलों में ‘शिक्षक’ शब्द का अर्थ ही समाप्त हो गया है।
प्रबंधन स्वयं को मालिक समझ बैठा है, और शिक्षकों को केवल आदेश मानने वाला कर्मचारी।
‘हम तुम्हें वेतन दे रहे हैं’ — इस कथन की आड़ में उनसे दोगुना कार्य, तीन गुनी अपेक्षाएँ और ज़रा भी सम्मान नहीं दिया जाता।
क्या वे भूल गए हैं कि वेतन देना कोई उपकार नहीं, बल्कि शिक्षक के कठोर परिश्रम का मूल्य है?
शिक्षक भवन नहीं बनाते — वे पीढ़ियाँ गढ़ते हैं।
परंतु जिनकी दृष्टि केवल लाभ और प्रदर्शन पर टिकी हो, वे इस मौन निर्माण को कभी नहीं समझ सकते।
ऐसे प्रबंधन को लज्जित होना चाहिए, जो शिक्षक की गरिमा का गला घोंटते हुए ‘ब्रांड’ और ‘बिज़नेस मॉडल’ का महिमामंडन करते हैं।
याद रखिए, जब एक शिक्षक अपमानित होता है, तब केवल व्यक्ति नहीं, सम्पूर्ण समाज की नींव हिलती है।
-अभिषेक थपलियाल।
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#Dehradun, #Uttarakhand.
I am an proud Pahadi✌️.
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वयक्तिगत फैसलों का खुले मंच से ऐलान नहीं किया जाता।
आपने निर्णय को अपने तक सीमित रखना पड़ता है।
जिंदगी आप की है, तो फैसला भी आप को ही करना है।
जब तक कार्य न हो जाए, उसका ढिंढोरा नहीं पीटा जाता।
मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं ये बोलने का अधिकार किसी को नहीं है किसी को भी नहीं।
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जो मैं चाहता था।
ईश्वर की कृपा से,
वो मुझे मिल गया,
अब मिल गया है,
तो बरकरार रखना है।
अपना सौ प्रतिशत देकर,
दिलों पर राज करना है।
ऐ! जमाने के लोगों,
बुरी नज़र न लगाना,
अगर नज़र लगी तो,
मेरे ईष्ट ने तुम्हारा बुरा हाल करना है।
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जय माँ ज्वाल्पा 🙏🏻
-अभिषेक थपलियाल-
भरी दोपहरी कश्मीर की,
वादियों में रमा था सबका मन।
एकाएक आततायियों ने
चला दी गोलियाँ — दन-दना-दन।
आततायी नहीं, आतंकवादी थे वे।
गोलियाँ चलाने से पहले
कलमा पढ़ने को कहा गया,
धर्म की पहचान बताने को —
मुस्लिम हो या नहीं, स्पष्ट किया गया।
सभी थे भारतीय पर्यटक,
भारत के, हिंद के वासी।
हिंदू कुल में जन्मे हुए,
भारत माँ के लाल थे सभी।
उन हैवानों ने ऐसी हैवानियत दिखाई,
गोलियों की बौछार से
खून की नदी बहाई।
खून बहा, निर्दोष मरे,
सिंदूर बहा, माँगें उजड़ीं।
उस सूनी माँग का बदला लेने को
"ऑपरेशन सिंदूर" चलाया गया,
घुसपैठियों को सबक सिखाने को,
उन्हीं की भूमि में उन्हें मार गिराया गया।
-अभिषेक थपलियाल।
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