हर बार जो हंस के टाली जाए ,
वो बात कितनी अधूरी है ,
और ,
जो हमेशा मुस्कुराए ,
वो खुश भी हो ,
ऐसा कहां ज़रुरी है..!!-
🙏🏻🙏🏻🙇🙇
नसीब की बारिश कुछ इस तरह से होती रही मुझ पर
ख्वाहिशें सूखती रहीं और पलकें भीगती रहीं..!!-
मुद्दतें लगीं बुनने में ख्वाबों का स्वेटर
तैयार हुआ तो मौसम बदल चुका था..!!-
चेहरे की हंसी दिखावट सी हो रही है
असल ज़िन्दगी भी बनावट सी हो रही है,
अनबन बढ़ती जा रही है रिश्तों में भी
अब अपनों से भी बगावत सी हो रही है,
पहले ऐसा था नहीं जैसा हूं आजकल
मेरी कहानी कोई कहावत सी हो रही है,
दूरी बढ़ती जा रही है मंज़िल से मेरी
चलते-चलते भी थकावट सी हो रही है,
शब्द कम पड़ रहे हैं मेरी बातों में भी
ख़ामोशी की जैसे मिलावट सी हो रही है,
और मशवरे की आदत ना रही लोगों को
अब गुज़ारिश भी शिक़ायत सी हो रही है..!!-
एक छोटी-सी बात पर मैंने परिवार बदलते देखे हैं
ज़रुरत पड़ने पर मैंने सारे रिश्तेदार बदलते देखे हैं ,
यकीं सा उठ चला है हर शख्स से अब तो मेरा
क्योंकि मैंने अक्सर अपनों के किरदार बदलते देखे हैं ,
जितना दिया ईश्वर ने उतनी ही हवस बढ़ी
आये दिन मैंने लोगों के व्यापार बलते देखे हैं ,
कल खबरों में छा जाना था लोगों के नापाक इरादों को
कुछ गड्डी देकर नोटों की मैंने अखबार बदलते देखे हैं ,
लो आ गये वो भी इस बदनाम महफ़िल में
अरे हमने यहां बड़े-बड़े इज़्ज़तदार बदलते देखे हैं ,
एक छोटी-सी बात पर मैंने परिवार बदलते देखे हैं
ज़रुरत पड़ने पर मैंने सारे रिश्तेदार बदलते देखे हैं..!!
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रुई का गद्दा बेच कर मैंने एक दरी खरीद ली
ख्वाहिशों को कुछ कम किया मैंने और खुशी खरीद ली,
सबने खरीदा सोना मैंने इक सुई खरीद ली
अपने सपनों को बुनने जितनी डोरी खरीद ली,
मेरी एक ख्वाहिश मुझसे मेरे दोस्त ने खरीद ली
फिर उसकी हंसी से मैंने अपनी कुछ और खुशी खरीद ली,
इस ज़माने से सौदा कर एक ज़िन्दगी खरीद ली
मैंने दिनों को बेचा और शामें खरीद ली,
शौक-ए-ज़िन्दगी कमतर से और कुछ कम किये
फिर सस्ते में ही मैंने सुकून-ए-ज़िन्दगी खरीद ली..!!-
आहिस्ता आहिस्ता बढ़ रही है चेहरे की लकीरें
शायद नादानी और तजुर्बे में बॅंटवारा हो रहा है..!!-
लम्हों की एक किताब है ज़िन्दगी
सांसों और ख्यालों का हिसाब है ज़िन्दगी ,
कुछ ज़रूरतें पूरी कुछ ख्वाहिशें अधूरी
बस इन्हीं सवालों का जवाब है ज़िन्दगी..!!-
शाम तक सुबह की नज़रों से उतर जाते हैं
इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं ,
फिर वही तल्ख़ी- ए -हालात मुक़द्दर ठहरी
नशे कैसे भी हों कुछ दिन में उतर जाते हैं,
इक जुदाई का वो लम्हा कि जो मरता ही नहीं
लोग कहते थे कि सब वक्त के चलते गुज़र जाते हैं,
घर की गिरती हुई दीवारें ही मुझ से अच्छी हैं
रास्ता चलते हुए लोग वहां अक्सर ठहर जाते हैं,
हम तो बस बे - नाम इरादों के मुसाफ़िर हैं दोस्तों
कुछ पता हो तो बताएं कि आखिर हम किधर जाते हैं..!!— % &— % &-
ये रूह बरसों से दफ़न है तुम मदद करोगे
अब बदन के मलबे से इसको ज़िंदा निकालना है,
निकाल लाया हूँ एक पिंजरे से एक नादान
परिंदा अब इस परिंदे के दिल से पिंजरा निकालना है..!!
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