Abhishek Sharma   (©अभिषेक शर्मा)
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Joined 9 August 2019


Joined 9 August 2019
26 JAN AT 14:39

कुछ भी तो रहता नहीं साथ में
सब कुछ बेगाना-सा नजर आता है,
आज कल हर चेहरा इस शहर में
मुझे अंजाना-सा नजर आता है,
मेरे सारे किस्से अब पुराने हो गए
उनमें अधुरा सा फ़साना नजर आता है,
कोई करता नहीं भरोसा मेरी बातों पर
मेरी निगाहों में उन्हें बहाना-सा नजर आता है,
यूं तो रहती है आस-पास मेरे भीड़ बहुत
मगर एक शख़्स में ही अब ज़माना नजर आता है।।

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21 MAY 2023 AT 21:27

ये आंखें अभी भी भारी हैं
जीने की कोशिश अभी भी जारी हैं,
ये जो दर्द उठता है रह-रहकर सीने में
इसमें जिंदगी और मौत दोनों की हिस्सेदारी है।

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22 DEC 2022 AT 21:06

मेरे चेहरे पर कुछ सवाल हैं ना
ये आंखें अब भी लाल हैं ना,
मैंने छुआ था उसको अपने हाथों से
ये बात कितनी कमाल है ना।।

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25 SEP 2022 AT 10:24

अक्सर लोगों को दूर जाते हुए देखा है
बागीचे में फूलों को मुरझाते हुए देखा है,
मैंने देखा है सुबह को ढलते हुए शाम में
कागज की कश्ती को दरिया पार कराते हुए देखा है।

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17 SEP 2022 AT 2:57

मन समुंदर सा हो गया है
इनमें लहरों सा शोर है,
कुछ डूब रहा है सतह के ऊपर
ढूंढता सा अपना एक छोर है ‌‌।

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7 AUG 2022 AT 19:57

क्या की है कभी कोशिश उसकी आंखों में देखने की
क्या दिखा है आंखों के अलावा कुछ और भी उन आंखों में,
क्या पढ़ा है तुमने उसके माथे की शिकऩ को
क्या देखा है कभी कितने निशान हैं उसके हाथों में,
क्या सोचते हो अब भी उससे नजरें मिलाते वक्त
क्या मिलने जाते हो अब भी उससे ख्वाबों में,
क्या मिलती नहीं राहतें उससे दूर होकर तुम्हें
क्या होते हो बैचेन अब भी अंधेरी रातों में,
क्या अब भी उसके नाम पर दो-चार शायरियां लिखते हो
या उसकी खींची हुई तस्वीरें अपने पास रखते हो,
क्या अब भी उसके बालों की खुशबू पहचान लेते हो
या सड़क पार करते वक्त उसका हाथ थाम लेते हो,
क्या अब भी उसका होना,‌ ना होना महसूस करते हो
क्या अब भी उसकी एक झलक पाने को पल-पल मरते हो।

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1 AUG 2022 AT 13:28

कुछ सुकून के पलों की खातिर
जिंदगी को अपनी अजाब बना रखा है,
कोई पढ़ ना ले ये चेहरे की शिकन अभि
इसलिए खुद को एक बंद किताब बना रखा है।।

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17 JUL 2022 AT 12:14

आज अपना हाल देख हमें रोना आया है
अनसुलझे से ये सवाल देख हमें रोना आया है,
मिलते आए लोगों से बड़े खुश मिजाज़ से हम
अब बैठे अकेले कमरे में तो हमें रोना आया है।

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14 JUL 2022 AT 12:58

ये रूकी-रूकी सी रातें, जिनमें इतना अंधेरा है
ये बुझी-बुझी सी आंखें, जहां अभी तक नींद का पहरा है,
बेसुध सा होकर मैं भी रुक गया हूं कहीं
जाने कौन सा नशा मेरे ज़हन में अभी तक ठहरा है।।

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17 APR 2022 AT 23:00

हर तरफ उसकी यादों का पहरा नज़र आता है
जब भी खोलता हूं आंखें तो उसका चेहरा नज़र आता है,
सिर्फ मैं ही नहीं अब वो भी है बैचेन बिछड़ने के बाद
उसकी आंखों का दरिया अब और गहरा नज़र आता है।

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