Abhishek Sharma   (अभिषेक शर्मा "ख़यालात ")
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Just pouring my heart out
Joined 2 January 2019


Just pouring my heart out
Joined 2 January 2019
26 FEB 2022 AT 23:18

मैं खुद के पास होकर भी खुद को याद आता था,
अपनी फ़ेहरिस्त-ए-तरजीह में खुद के बाद आता था।

जिन्हें खोलने मे हर दफ़ा थोड़ी मर जाती थी मोहब्बत,
मैं जान बूझकर उन गाँठों को मुकर्रर बाँध आता था।

वो चाय में शक्कर नहीं डाले तब भी पी लेता था मैं,
मीठी नहीं लगती थी पर इश्क़ का स्वाद आता था।

इक वो थी, जो अपनी सारी खुशियाँ मुझसे बाँटती थी,
इक मैं था कि दिन भर के गम उस पे लाद आता था।— % &

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8 JAN 2022 AT 20:05

इन दिनों लोग, मोहब्बत में मसले हल नहीं करते,
जिससे कल की थी मोहब्बत उससे कल नहीं करते।

अच्छा सवाल है, कि "वादे निभा कैसे लेते हैं हम?",
जितनी कटे नहीं हमसे, हम उतनी फसल नहीं करते।

अब इससे ज़ियादा भी क्या सुबूत-ए-इश्क़ दें तुम्हें,
जो मोहब्बत नहीं करते जनाब, वो गज़ल नहीं करते।

वैसे तो इरादा था कि तुझसे इश्क़ करेंगे "खयालात",
पर अब तूने कह दिया तो ठीक है चल, नहीं करते।

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26 NOV 2021 AT 22:56

कल कोई हमसे पूछ रहा था, "कब से इश्क़ नहीं करते"?
अरे! हमने जब से इश्क़ किया है, तब से इश्क़ नहीं करते।

कुछ तो बात है तुममें, जो याद मेरी गज़लों को हो तुम,
ये स्याही-ओ-कलम इतना जानाँ, सब से इश्क़ नहीं करते।

तुमसे दूर भी खुश कैसे हैं? गर सोच रही हो तो सुन लो,
हम इश्क़ अदब से करते हैं, मतलब से इश्क़ नहीं करते।

जाने कितनी रातें "खयालात", हमने बेचैनी में काटीं हैं,
पर तब से बेहद चैन में हैं, हम जब से इश्क़ नहीं करते।

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21 SEP 2021 AT 18:56

ऐ ज़िंदगी, देख तेरी दुश्वारियों से मैं डरा तो नहीं,
तुझसे मन भर गया तो क्या, दिल भरा तो नहीं।

तेरे "कैसे हो" पे मेरा "ठीक हूँ" मान भी लिया तूने,
इक दफ़ा परख तो लेती, कोई ज़ख्म हरा तो नहीं।

हिसाब-ए-ज़िंदगी जिस रोज़ हुआ, तुम हारोगे मुझसे,
बेशक बहुत कुछ करा तुमने पर इश्क़ करा तो नहीं।

कभी किसी को अपनी जान बनाया था मैने, "खयालात",
आज, सवा साल हो गया बिछड़े उससे, मैं मरा तो नहीं?

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31 AUG 2021 AT 20:40

दरिया, प्यास, ज़ख्म, खता, कौन हूँ मैं?
मैं तो नहीं वाक़िफ़, तू ही बता कौन हूँ मैं?

हम से मोहब्बत यानी किसी भ्रम से मोहब्बत,
लौटना मत, जिस रोज़ चले पता, कौन हूँ मैं।

ज़माना पूछता है खुदा से सवाल-ए-वजूद,
और मुझसे पूछता रहता है खुदा, कौन हूँ मैं?

वो अपनाते भी नहीं मुझे, दूर भी नहीं करते,
उनका मर्ज़ हूँ "खयालात" या दवा, कौन हूँ मैं?

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3 AUG 2021 AT 22:56

इक शख्स को शामिल खुद में करने का इरादा कर बैठे थे,
जितनी मोहब्बत बस की थी हम उससे ज़्यादा कर बैठे थे।

जिसे निभाना नामुमकिन था, लाख मशक्कत बाद भी,
आखिर क्यूँ इक दूजे से हम तुम ऐसा वादा कर बैठे थे।

भला क्यूँ न जाती छोड़ के मुझको इक शहज़ादे खातिर वो,
शतरंज-ए-इश्क़ में रानी उसे हम खुद को प्यादा कर बैठे थे।

तुम्हारा और उनका बिछड़ना तो नागुज़ीर था "खयालात",
गज़लों में तुम खुद को कान्हा, उनको राधा कर बैठे थे।

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24 JUL 2021 AT 19:01

घटा घिरे घनघोर तो बरस ही जाए, ज़रूरी है क्या,
तेरी याद आए, आँख छलक ही जाए, ज़रूरी है क्या।

पैगाम-ए-इश्क़ तो हर रोज़ भेजते हैं, खुदा कसम,
अब वो पैगाम तुम तलक ही जाए, ज़रूरी है क्या।

कभी धरा से भी बोलो कि उठ कर चूमे आस्माँ को,
हर दफ़ा ज़मीं तक फलक ही जाए, ज़रूरी है क्या

माना घड़ी का इक कोना ज़रा तेज़ है तेरा, "खयालात"
मगर उनके दुपट्टे से उलझ ही जाए, ज़रूरी है क्या।

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25 JUN 2021 AT 20:09

रोटी कमाने के खातिर वो अपना घर-बार बेचता है,
लाला दायम खरीदता है, कल्लन हर बार बेचता है।

माँ की भूँख, कभी पैरों को उसके थकने नहीं देती,
अभी छह का है लड़का जो भोर अखबार बेचता है।

यहाँ दिवाली भी सबके लिये इक जैसी कहाँ साहब,
कोई खुशियाँ खरीदता है तो कोई त्योहार बेचता है।

वहाँ कैसी ही जम्हूरियत, किस काम की सरकारें,
जहाँ बेटी की दवाओं के लिये बाप संसार बेचता है।

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20 JUN 2021 AT 12:20

पहेलीनुमा कठोर शब्दों में पिरोयी हुई,
त्याग और बलिदान पर लिखी हुई,
किसी कविता का सार हैं,

वो पिता हैं,
वो व्यक्ति रूपी सम्पूर्ण संसार हैं।

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10 MAR 2021 AT 19:36

तेरे साथ था और तेरा पीछा कर रहा था मैं,
सोचकर हैरत होती है, ऐसा कर रहा था मैं।

कहा जाता है इसलिये कह दिया "फिर मिलेंगे"
तुम ये मत सोचना, कोई वादा कर रहा था मैं।

भला मैं क्या बताऊँ ज़माने को मोहब्बत क्या है,
मुझे खुद को नहीं मालूम कि क्या कर रहा था मैं।

तू झगड़े नहीं मुझसे कि "झगड़ते नहीं हो तुम",
महज़ इसी लिये तुझसे झगड़ा कर रहा था मैं।

कल लिखी थी एक गज़ल मोहब्बत पर "खयालात",
या यूँ कहो, तिरे दिये खतों को इकट्ठा कर रहा था मैं।

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