Abhishek Sahaj   (Abhishek Sahaj)
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Journalist Amar ujala Lucknow
Poet, Writer, Anchor
Joined 6 May 2017


Journalist Amar ujala Lucknow
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18 JAN 2022 AT 12:41

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14 MAY 2020 AT 20:00

फ़रेब से शोहरत कमा ली उसने,
जाहिलों की जमात जमा ली उसने।
माँ पर लिखकर बड़ा नाम कमाया,
फिर उसी माँ को गाली दी उसने।
- अभिषेक सहज

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6 AUG 2019 AT 3:28

कालखंड के पृष्ठों पर जब स्वाभिमान लिखा जाएगा।
काश्मीर में आज़ादी का तब दिनमान लिखा जाएगा।
अगस्त पांच को संसद में सावन बरसा था झूम-झूम।
सन उन्नीस सदी इक्कीस दिन सोमवार लिखा जाएगा।
- अभिषेक सहज

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23 MAY 2019 AT 18:51

जनता सुनती है, जनता देखती भी है।
जनता सिसकती है, जनता रोती भी है।
और फिर जनता चुनती भी है
समय आने पर अपनी सरकार...
यही तो है लोकतंत्र का व्यवहार...
जनता टोकती है, जनता रोकती भी है।
तुम्हें नहीं दिखता, कमी तुम्हारी भी है।
और फिर जनता करती भी है
समय आने पर सबको खबरदार...
यही तो है लोकतंत्र का व्यवहार...
जनता अपनाती है, जनता ठुकराती भी है।
जनता हंसाती है तो जनता रुलाती भी है।
और फिर जनता बना भी देती है
समय आने पर सबको चौकीदार...
यही तो है लोकतंत्र का व्यवहार...
अभिषेक सहज

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26 APR 2019 AT 3:50

उठो, बढ़ो, कुछ कदम चलो, करना है काम महान...
लोकतंत्र की रक्षा को करना है अब मतदान।
जाति-धर्म की मुहरों में, न बंट जाए इंसान।
लोकतंत्र की रक्षा को, करना है अब मतदान।

भय और भ्रष्टाचार मिटाएं, ये मुद्दा साझा कर लें...
हम अच्छी सरकार बनाएं, ये खुद से वादा कर लें।
जैसे काशी-काबा में हम करते आए दान।
लोकतंत्र की रक्षा को, करना है अब मतदान।

अब न जगे तो सो न सकोगे, फिर मेरे भारत वालों...
उठो धरा ने तुम्हें पुकारा प्रजातंत्र के पहरेदारों।
स्वच्छ छवि के नेता का, बस करना तुम अनुमान।
लोकतंत्र की रक्षा को, करना है अब मतदान।

कब तक खामोशी से यूं ही बैठ तमाशा देखोगे।
कब तक कुछ बहरूपियों का झूंठ दिलासा देखोगे।
हमको जो अधिकार मिला, करना उसका सम्मान।
लोकतंत्र की रक्षा को, करना है अब मतदान।
-अभिषेक सहज


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5 APR 2019 AT 8:14

दोस्त, दुश्मन, भरोसा, इरादे बदल रहे हैं।
चुनाव के मौसम में वो पाले बदल रहे हैं।
सियासत में वफादारी निभाना नहीं आया।
ज़रा सी बात पर लोग घराने बदल रहे हैं।
अभिषेक सहज

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1 APR 2019 AT 19:16

हर खबर पर अब सियासत का पहरा रहता है
कोई पाले में रहता है, कोई निशाने पे रहता है।
हर्फ़-दर-हर्फ़ दिखाता था जो शहर को आईना
वही अखबार किसी की तरफदारी में रहता है।
अभिषेक सहज

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30 MAR 2019 AT 10:18

कुआं प्यासे के पास आ रहा है।
लगता है फिर चुनाव आ रहा है।

उसे फिर मेरी ज़रूरत महसूस हो रही है।
मुझे फिर उस पर तरस आ रहा है।

जिसने बरसों से सूरत तक नहीं दिखाई।
वो फिर मुझे सब्ज़बाग दिखा रहा है।

कर लूं मैं एतबार उस पर एक बार और
वो फिर मुझे पुराने किस्से सुना रहा है।
- अभिषेक सहज


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27 MAR 2019 AT 8:14

मुख़ालफ़त सी महसूस कर रहा हूं आज घर में।
सुना है कल शाम कुछ सियासी लोग आए थे।
अभिषेक सहज

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17 FEB 2019 AT 20:55

मेरी शहादत को न अपनी जीत समझ दुश्मन।
मेरे खून का हर एक कतरा इंकलाब बोलेगा।
ये दहशत अब नहीं सौंपूंगा अगली पीढ़ियों को।
मौत के लगकर गले भी मेरा वजूद बोलेगा।
अभिषेक सहज

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