डर नही है अब उसे अंजाम से।
सो रहा वो चोर भी आराम से।
जब से देखा है तुझे रोते हुए।
दिल ही बैठा जा रहा कल शाम से।
उड़ चुके हैं सब परिंदे बाग के।
बागबाँ खाली है अपने काम से।
वो नदी भी अनवरत बहती रही
इक लगन लागी खुदा के नाम से।
अब सबाबों का नतीजा मिल गया
फिर रहे हैं दर बदर बदनाम से।-
जो भी मिल गया उसे याद रख,जो नही मिला उस... read more
फिर वही मौसम आये तो क्या
रुत भी बहुत मुस्कुराए तो क्या
गुज़र गया वो मंज़र ,गुज़रने को था
उस रात वो बादल बरसने को था
चमकते सितारे टूट जाते हैं क्यों
अपने भी हमसे रूठ जाते हैं क्यों
अब सारा जहां गुनगुनाये तो क्या
फिर वही मौसम आये तो क्या
आप तो खुशियां लुटा कर चले
एक अलग ही जहां बसा कर चले
चलते कदम रुक जाते हैं क्यों
मुसाफिर घरौंदा बनाते हैं क्यों
अब चमन में कली मुस्कुराए तो क्या
फिर वही मौसम आये तो क्या
- अभिषेक मिश्रा
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पेड़"
ये है उस पेड़ की कहानी जो बरसों पहले देखा था
तरु की कोमल डालों ने मेरा बोझ भी झेला था
बचपन में जो भी मैंने मीठे फल खाए थे
वो सारे मीठे रसगुल्ले उसी पेड़ के जाये थे
उम्र बढ़ने के साथ साथ मेरे फ़र्ज़ ने डेरा डाल दिया
उस पेड़ के विछोह ने मुझे धर्म संकट का हाल दिया
एक तरफ वह पेड़ था एक तरफ पढ़ाई थी
ये तो मेरे हृदय और कर्तव्य की लड़ाई थी
शहर जाके भी मुझको उसकी याद आती थी
उसकी याद में मेरी हृदय तरंग हिलोरें खाती थी
मैं उसको प्यार करता वो मुझे दुलार करता था
अपनी डाली हिला हिलाकर वो भी इज़हार करता था
मित्र मिलन की चाहत लेकर उसकी खातिर गांव गया
दस बरस के बाद उमंग में पाने उसकी छाँव गया
वहाँ पहुंच के पता चला मैं दस साल ही चूक गया था
मेरे जाने पर मेरी याद में मेरा पेड़ भी सूख गया था।-
नई ग़ज़ल---
आज चेहरे पे यूं बरसात सुहानी आई।
आंख में फिर से वही पीर पुरानी आई।
दिन किसी तरहा किसी तौर बिता भी लेते।
मुझको अब यूं भी नही रात बितानी आई।
हैं वो बचपन के खिलौने तो अभी तक जिंदा
आज फिर याद वही बिसरी कहानी आई।
यूं गुजारी थी जवां उम्र फकत बैठे ही
बाद मुद्दत उन पैरों में रवानी आई।
मैंने टाले थे जो उस रोज कि फिर कर लूंगा
आज तक फिर से नहीं लौट जवानी आई।
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सिर्फ दीवार हूँ बस मकां होने तक।
मैं अकेला ही हूँ कारवां होने तक।
है खफा ज़िन्दगी एक मुद्दत से ही,
क्या नही देखा हमने जवां होने तक।
सबको हासिल नही है वो फूलों सा दिल,
ये मशक्कत है बस बागबां होने तक।-
रास्ते कहाँ खत्म होते हैं ज़िन्दगी के सफर में,
मंज़िल तो वही है जहां ख्वाहिशें थम जाएं।-
तेरा जाना तो बस इक बहाना हुआ
जानिब- ए-गम मेरा दिल रवाना हुआ।
हम भी होते थे खुश यूं भी दिल खोलकर
वो बहारों का मौसम बेगाना हुआ।
कैद पिंजर की है दर बदर नौकरी
घर की गलियों से गुजरे ज़माना हुआ।
फ़र्क़ रिश्तों में कुछ ऐसे दाखिल हुआ
एक मुद्दत में फिर आना जाना हुआ।
तुम चलो, हम चलें , सब चलेंगे मगर
जाने बेवक़्त क्यों उनका जाना हुआ।
शहर की सब गलियां चकाचौंध कीं,
गांव का मजमुआ अब फसाना हुआ।-
उन्हें जो करना है वो बेधड़क करते जाएं, कुछ मत कहो
सच हमेशा से ही कड़वा लगता ही है।
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खुद के गिरेबान में पहले झाँको तो सही,
सब पता चल जाता है क्या सही क्या गलत।
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