एक खत रोज़ लिखा उसने
पूरे दिन के किस्से कहानी
क्या पसन्द आया क्या नापसन्द
क्यो ऐसा हुआ वैसा नहीं
फूल कितने खिले
और चाँद कैसे मुस्काया
रोज़ एक खत, बरसों तक
हर खत के बाद
पता खोजा था उसने
खुशबू सी बची थी
मद्धम सी आवाज़ भी
पता नहीं था कहीं
इश्क़ से तरबतर किस्सों का
कोई पता कहाँ होता है
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