मुझे पता है कि
गधे के पीछे खड़े होकर तुम्हें
दुल्लती का डर नहीं लगता
मुझे भी नहीं लगता
मगर उसमें समझदारी क्या है
वो समझ नहीं पड़ता !!
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रोज रोज नहीं आती
ऐसी रात तूफ़ानी,
अकेले हम , अकेला चांद
और बदरिया बागी
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कौन हो?
मैंने पूछा कौन हो?
वो कहने में रुकने वाले
ये करने से डरने वाले
ठिठके शब्दों को सिमटाकर
निकले शब्दों पर सहमे-से
डंडे-गाली चोट लिए,
"तुम कौन हो"
उसने बोला - मौन हूॅं
कंधे पर बेटा और हाथों में बक्सा
उसके पल्लू में बिस्किट औ पैरों में छाले,
चलकर मीलों
घर जाकर थककर गुपचुप सोने वाले,
फिर खाने के लाले!
मैंने पूछा "तुम कौन हो"
उसने बोला - मौन हूॅं
टीवी की मजलिस से ऊबा,
मंदिर मस्जिद के चक्कर में
लाल-हरे में रंगा गया,
नेता-रईस की चुटकी पर बजने वाले
जो ढोल हो
मैंने पूछा " तुम कौन हो"
उसने बोला - मौन हूॅं
फिल्मों में, कथा-कहानी में,
सत्ता की तीखी बहसों में,
हर धरने में चर्चा होती जिसकी,
लेकिन असल जिंदगी में
रोशन गलियों में गौण हो!
" तुम कौन हो"
उसने बोला - मौन हूॅं-
दो बहनें हिंदी और उर्दू :
अर्ज किया है,
जब से रुख़सत हुई है मुहब्बत मेरी
मेरा हृदय मर्मस्पर्शी हो गया है
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हिंदी दिवस
'मा निषाद प्रतिस्थाम' के स्वर गूंजावें
अपने-अपने अहंकार से पिंड छुड़ा लें
थोड़ा कष्ट करें ,समय से आगे झाॅंकें
आओ मिलकर,
हिंदी को फिर नूतन रचना दें-
कई सत्य
एक प्रश्न उठा मेरे मन में
क्यों हर रास्ता सत्य की ओर जाता है
क्यों उस मंजिल तक जाने के कई रास्ते है
कही सत्य कई तो नही !
हर-एक दूसरे से अलग
हर-एक के लिए एक सत्य ;
या सत्य वृत्त की परिधि है ,
और हम वृत्त के अन्दर |
और क्यों नही पथ का एक रोरा
भविष्य-धारा बदल देगा
और तब एक सत्य से दूसरे कई ओर
ये हमारा विचलन होगा |-
कभी-कभी ये कमरा
अजीब हो जाता है
गहरी संवेदना का केन्द्र बन जाता है
गला रूधता है और
आँखो से पानी आ जाता है।
कभी ये अकेलापन खाता है
और कभी गहरा दोस्त बन जाता है –
चुपके से मुझे जगाकर
फिर बुत बन जाता है
कुछ दृश्य दिखाता है
पर्दे के पीछे का.
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मैंने जाना -
पानी और धूप में बेघर
अनाज की बोरियां,
सड़ती है,
गलती है,
तैयार करती है नशीला कीचड़,
और विद्रोह की सारी प्रक्रिया
मंद पड़ जाती है ।
केवल रह जाती है,
रिपोर्टर की कुछ तस्वीरें,
मेरी-तेरी कुछ दबी-दबी सी आह
ज्यादा रोष , थोड़ा क्लेश ।
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आईए न, थोड़ा-कुछ काम कर ले,
जो बाॅंचते हैं मुफ्त में, एफ बी पर ज्ञान
उससे इत्मीनान लें,
नाचती नहीं हैं बस उंगलियां वहां
खाली दिमाग भी नाचता है
अकड़ी जाती है हड्डियां- यारियां
वक्त भी धूल फांकता है ।-
भूख जग कर सो चुकी है
उनका आना तब भी जरूरी नहीं था शायद
या मेरे सोच का पैमाना है छोटा
हर जगह इश्क देखना जरूरी नहीं था शायद ।-