एक धूनी जमाये हो कबसे मेरी पलकों पे, एक नींद को बाँध रखा है अपने दामन से। एक ख़्वाब को आने से रोक रखा है आँखों की चौखट तक। एक ख़्याल को क़ैद किया है हवाओ में। ऐ शख़्स तुम मुझे आज़ाद कर क्यों नही देते।
जानती हो, ज़िंदगी लम्हों में होती है उन लम्हों के भी कुछ हिस्से होते है। जैसे अभी ये लम्हे हम जी रहे है ये वाक़ई अपने आप में खास है क्योंकि कोई भी चीज़ बहुत गैरमामूली नही हो सकती यहाँ तक तुम्हारा पहली बार मेरा नाम लेना भी। बाक़ी तमाम उम्र हम क़िरदार निभाते नज़र आएंगे। कभी तकल्लुफ में कभी ज़रूरतो में कभी घर पड़ोसी रिश्तेदारो अज़ीज़ों के लिए कभी रोज़ी रोटी के लिए।