Abhinav Singh   (@भी)
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Joined 1 May 2017


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12 APR 2019 AT 21:53

सफ़र में मुमकिन सभी मंज़र देखो
भले हों कि बुरे......मग़र देखो ।

देखो.. कि ये आँखे देखने को हैं
इधर नई है रस्ता..तो उधर देखो ।

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24 DEC 2018 AT 22:42



औऱ फ़िर मैं अपनी किसी
फूहड़ सी परिकल्पना से
उसके चरित्र का निर्धारण करता हूँ
तो मैं ये लांछन लगाता हूँ
ख़ुद पर के मैं चरित्रहीन हूँ ।
ग़र तुम भी मेरे जैसे हो
तो मैं ये लांछन लगाता हूँ तुम पर
के तुम चरित्रहीन हो ।



"चरित्रहीन" पूरी कविता कैप्शन में पढ़ें ।

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7 NOV 2018 AT 19:24

ये अंधेरा हर सम्त फ़ैले कुछ ऐसा करते हैं
मैं डरूं , तुम डरो , आओ सब डरते हैं ।।

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4 OCT 2018 AT 20:15

रह रह कर कहानी में खलल पैदा करते हैं ,
मेरे कुछ क़िरदार हैं जिन्हें मौत के घाट उतारना है मुझे ।।

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20 SEP 2018 AT 7:16

ये मेरी वहशत ख़ामोश रखती है मुझे ,
मैं चीख़ उठूँ जो इक पल को सयाना हो जाऊँ ।


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9 SEP 2018 AT 20:23

"दीवार"
वो दीवार अब भी खड़ी है , सीना ताने , उसी चौड़ में । वो टस से मस नहीं होती है करती रहती है अपना काम जो की उसका मूल स्वभाव है जो की उसका अस्तित्व है , वो खड़ी रहती है। उसे इस बात का कोई खौफ़ नहीं कि उस से बड़ी ताकतें उसे कभी भी गिरा सकती हैं ना तो उसे कोई ग़म है समय के साथ उस से उधड़ कर गिरती पपड़ियों का । उसे ये भी पता है के वो गिर जाएगी एक रोज़ जर्जर हो कर लेकिन फ़िर भी वो खड़ी रहती है । उसे फ़र्क नहीं पड़ता धूप से , बारिश की नमी से और ना आँधियों के थपेड़ों से ।

वो खड़ी है क्योंकि उसे किसी ने बताया ही नहीं के वो खोखली है ।

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7 SEP 2018 AT 11:06


गले में नारंगी गमछा डाल चल देता है हर रोज़ वो किसी बिहारी बाबू की तरह । बिना किसी डर के , बिना शरमाये , पूर्ण आत्मविश्वास औऱ दबंगई के संग अपने पान चबाये सुर्ख़ होठों से चूम लेता है वो अपनी तथाकथित , स्वयं घोषित महबूबा के गाल को । उसके होठों में लगे कुछ पान के टुकड़े रगड़ खा जाते हैं उसकी महबूबा के मखमली गाल से ,उस चुम्बन के दौरान । कत्थई लाल रंग पसारने लगता है अपने पाँव उस गाल पर औऱ हौले हौले ये रंग ले लेता है उसकी महबूबा को अपनी ज़द में , वो मारे शर्म के सुर्ख़ लाल हो जाती है ।

सूरज औऱ समुद्र के इसी इश्क़ को सूर्यास्त कहते हैं ।

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17 AUG 2018 AT 23:35

"ऐनक"

जो दिखाई दे रहा है या समक्ष जो घटित हो रहा है
उसे सत्य की संज्ञा प्रदान करती हैं निरंतर चीखें , वाद-विवाद और प्रतिक्रियाओं का कोलाहल ।
किसी एकांत में ये सारे दृश्य जो मस्तिष्क पटल पर अंकित हैं वो किसी भ्रम से प्रतीत होते हैं । भ्रम जो की सत्य का चोला ओढ़ हमारे सम्मुख हर पल तांडव कर रहा होता है और हम ले रहे होते हैं उसका आनंद । और जब उसी तांडव की थिरकन आपके कानों को मधुर नहीं लगती तो आप रोते हैं , चीख़ते हैं , ख़ुद को हारा हुआ , ठगा हुआ पाते हैं और बेचारगी में ख़ुद को लपेट कर लगाने लग जाते हैं इल्ज़ाम उस तांडव पर क्योंकि इसके सिवा आप कुछ कर नहीं सकते और आप करेंगे भी नहीं क्योंकि आनंद आता है आपको इस भ्रम में । सत्य तो पर्दे के पीछे खड़ा आपका तमाशा देख रहा है पर आप सत्य नहीं देख पा रहे और ना ही आप देखना चाहते हैं । क्योंकि सत्य में भ्रम की जगह शून्य है , भ्रम में मनोरंजन है और आपको चाहिए छणिक मनोरंजन या फिर आपने सत्य के असीम आनंद को छुआ नहीं है अभी तक । तो बैठिये किसी रोज़ एकांत में और देखिए सत्य , नहीं तो ये मुमकिन है के आपका जीवन भी भ्रम बन कर रह जाए । औऱ ये सत्य देखना पड़ेगा आपको ख़ुद इन्हीं नग्न आँखों से क्योंकि बाजार में सत्य दिखाने वाली ऐनक अभी तक आई नहीं है ।

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8 AUG 2018 AT 22:17

आज हवा में नमी ज़्यादा है ,
सुनो , तुम रो रहे हो क्या ?

क्या ढूँढते हो सेहरा में ?
रेत खो गयी है क्या ?

औऱ कहाँ जा रहे हो छुड़ा कर बाहें आधी रात ?
देर हो गयी है क्या ?

अंधेरे जितना उजाला भी होता है ,
तुम सिर्फ़ रात में देखते हो क्या ?

खिलौने आते हैं बाज़ारों में , लेते क्यूँ नहीं ,
तुम सिर्फ़ दिलों से खेलते हो क्या ?

उसने मना किआ है , क्यों नहीं मानते ?
"ना" समझ में नहीं आता क्या ?

सिनेमा तीन घंटों में ख़तम हो जाता है ,
तुम्हें इसमें और ज़िन्दगी में फरक नज़र नहीं आता क्या ?

दूसरों की ज़रूरत क्यों पड़ती है तुम्हें ?
तुम्हें ख़ुद ख़ुश रहना नहीं आता क्या ?

क्या सबकी सुनने में पड़े हो ?
तुम्हें ख़ुद की सुनना नहीं आता क्या ?

हंसी में चीखें छुपा क्यों लेते हो ?
तुम्हें रोना नहीं आता क्या ?

दहेज़ की बातें चल रहीं हैं तुम्हारे घर पर
तुम्हें ख़ुद कमाना नहीं आता क्या ?

अपनी अपनी हवाएं चला रहें है सब
किसी को देश चलाना नहीं आता क्या ?

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3 AUG 2018 AT 23:18

आसमाँ से उतर कर ज़मीं पर आ गए हैं
शायद चुनाव आ गए हैं ।।

सूखे सारे खेतों फिर बादल छा गए हैं
शायद चुनाव आ गए हैं ।।

सुना है फ़िर से मंदिर बनाने पे आ गए हैं
शायद चुनाव आ गए हैं ।।

अपने ही गले की फाँस के गले पड़ गए हैं
शायद चुनाव आ गए हैं ।।

हिंदू मुस्लिम एससी एसटी सबके सुभचिंतक आ गए हैं
शायद चुनाव आ गए हैं ।।

गांधी भक्त हुजूम देश की सड़कों पर आ गए हैं
शायद चुनाव आ गए हैं ।।

आश्वासनों का बफर लग गया , वादे फिर से धूल कर आ गए हैं
शायद चुनाव आ गए हैं ।।

सरहदों की चिंता बढ़ गयी , घुसपैठियों के वक़ील आ गए हैं
शायद चुनाव आ गए हैं ।।

सारे सौहार्दय को ढकने ख़ातिर अलग अलग रंगों के चोले आ गए हैं
शायद चुनाव आ गए हैं ।।

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