ये तन्हाई शोर बहुत करती है, खालीपन अकेलेपन से कर रूबरू, बात अनेक करने लग जाती है, एक से दूसरी और तीसरी अपूर्ण लक्ष्यों की ओर धकेलती, नींद से दूर, दलदल के समीप छोड़ आती है, कैसे गुज़रे ये रात सुहानी, तपिश में तो थी ही, ये अंधकार भी अब जलाने लगी है!!
जब खुद से ही नाराज़ हूं मैं, अपने ही किए को बिगाड़ने की फितरत है मेरी, तो दूसरों के पीछे अपनी गलतियों को छिपाना क्यों है, बस ये अंतर्द्वंद्व है मन में मेरे भयंकर, खुद को खुद से पराजित करने की है आरजू, मैं ही हूं इस चक्रव्यूह का रचयिता और मैं ही योद्धा, क्योंकि ये युद्ध सदा से ही, मेरे स्वयं की स्वयं से है!!
ना जाने ये उलझन है, या उलझनों का सरल उपाय, या बंदिशों में जकड़ी रूह को, आजाद करने की कवायद, ना आर दिखता ना पार, समय की सुइयां छलनी कर देती दिल को, अंतर्मन से आए यही पुकार, इसे विलक्षित कर, ना घबरा कर दूरी कर इनसे, खुशियों के हैं ये सपने असली पर्याय!!
तो चौंक के नींद से जाग उठा मैं, असल में परछाइयों का भी दीदार नहीं है तुम्हारे, ख़्वाब को चैन देना चाहते हैं हम, असलियत तो तुम्हारे अलगाव और विरह से ही भरी है!!
किताबें हैं, पन्ने हैं, कहानियां हैं, किरदार हैं, रूबरू जिंदगी के पहलू हैं, कसमे हैं, खेल खिलोने हैं, ये रास्ते लंबे हैं, चाहतों से अपनी, या छोटे हैं, ख्वाहिशों से अपनी, धुंधली हैं, या रास्ते ही अगम्य हैं, यादें हैं, अपने, पर क्या सच में अपने हैं!!
के धुंध वाली राहों की आंखें नहीं होती, तमन्नाओं की भूख शांत नहीं होती, ये सब कुछ जान लेने की ललक वैसी ही है, जैसे शेर के दांत गड़े हो मांस में, बे नींद रात, सैंकड़ों ख्वाब, मजबूत पंजे, शिकार के लिए तैयार!!