भटकती सी राहों पर चलते चलते
कुछ निशां छोड़ आए,
हम अनजान से रास्तों को अपना कर
अपना वाजीब एक पता कर आए।
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बस जब दिल किया कुछ लिख लेती हूं 😊
अक्सर चांद देख कर पुरानी यादों में खो जाती हूं
एक दर्द उभरता है दिल में आँखो से पी जाती हूं
हर रोज़ निकलती हूं इन अंधेरों से की घिर जाती हूं
समझाती हूं बहुत ख़ुद को या ख़ुद समझ जाती हूं
ये कैसी इच्छाएं जो ख़त्म होती नहीं बढ़ जाती हूं
मैं समेटती हूं ख़ुद को जहां वहीं बिखर जाती हूं
कुछ क़दम चलते हैं नई सी राहों पर,लौट आती हूं
ना मंज़िल की चाह, पुरानी गलियों में निकल जाती हूं
ख़त्म ना होगी ये अभिलाषा कभी ये सोच घबराती हूं
और ये अभिलाषा भी ख़त्म हो ना सोच सुकून पाती हूं
आज भी बहुत खोई हूं तुझमें जहां ख़ुद को मैं पाती हूं
साथ ना होकर साथ हो तुम हर पल ये साथ निभाती हूं
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बहुत सी इच्छाएं मुझमें,
मैं अनंत इच्छाओं की परिभाषा।
सरल सुगम है राह मेरी,
दिल ही मेरी सदा की भाषा।
सौम्य हूं पर अडिग मेरी चेतना,
निश्छल हूं,और यही सब से आशा।
प्रेम का सैलाब जहां,
वहीं अंतर्मन कही प्यासा।
ना पाया पार किसी ने,
ना हार जीत का तमाशा।
मैं पूरी हूं स्वयं में ही कही
कहीं मुझमें ही कोई अधूरी "अभिलाषा"।-
लिखती हूं एक पाती रोज
तुम्हारे नाम की,
ना ख़बर तुम्हारी, ना पता तुम्हारा
बस यही है थाती मेरे पास,
तुम्हारे साथ की।-
हर लम्हा कुछ यूं गुजरता है
जैसे भूला हो पथिक कोई
फिर फिर उन्हीं गलियों से निकलता है-
एक ख़त लिखा तुम्हारा है
कुछ पन्नों में छिपी तस्वीर तुम्हारी है
एक गुलाब सहेज कर रखा है
बस लफ्ज़ मेरे हैं हर बात तुम्हारी है-
ले जाती है उम्र की उसी दौर में
जहां नादानियां शामिल हुआ करती थीं आदतों में
और बेफिक्री भी एक हिस्सा मिजाज़ का था-
छेड़ जाती है ये हवा बहती हुई, जाने कौन
इसे हमारी तुम्हारी हर बात बता जाता है-