Abhi Shrivastav  
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Joined 30 May 2019


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Joined 30 May 2019
20 JAN AT 14:48

धुंध तो छट जाए शायद,
पर ये वक्त कब बदलेगा!
बेहोशी में डूबा समां है,
क्या पता होश कब संभलेगा!

हौसले को थाम कर,
कई अर्शों से हिम्मत रखी है।
इस गुजरते पल में,
ना जाने हालात कब बदलेगा!

नए दौर का कानून है,
सूरत बदलने की कोशिश है।
जो खो गए थे कभी तूफान में,
क्या पता उनको आशियाना कब मिलेगा!

ये जीत की दौड़ है,
कामयाबी तक पहुँचना है!
सियासी भरे रास्तों में,
किसको पता शिखर कब मिलेगा!

धुंध तो छट जाए शायद,
पर ये वक्त कब बदलेगा!
बेहोशी में डूबा समां है,
क्या पता होश कब संभलेगा!

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10 OCT 2023 AT 15:22

कुछ ख्वाहिशें दफ़न की है,
कुछ चाहतों को मारा है,
सपनों का जहां बनाने के लिए,
उसने अपने जमीर को हारा है।

धूमिल होते वादों को,
अपनी आदतों में उसने उतारा है।

बोझल हो चूके रिश्तों को,
अपना अस्तित्व खो कर भी, संवारा है।

तूफान जो उठा था, जो सब कुछ मिटाने को।
भूल कर अपना जहां,
उसके जहां को उभारा है।

कुछ ख्वाहिशें दफ़न की है,
कुछ चाहतों को मारा है,
सपनों का जहां बनाने के लिए,
उसने अपने जमीर को हारा है।

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9 OCT 2023 AT 0:13

इस उल्फत भड़ी दुनिया हैं, बड़े बेबाक लोग हैं।
ज़िंदगी की इस इकलाई में, कहां साथ लोग हैं।

खुशी का हर लम्हा बांटने को,
हर वक्त आस-पास लोग हैं।

गम की इन तन्हा रातों में,
अक्सर दूर-दराज़ लोग हैं।

मौके के मौजूदगी में,
बड़े चालबाज लोग हैं।

बदलते रात-दिन की तरह,
हर तरफ बेनकाब लोग हैं।

इस उल्फत भड़ी दुनिया हैं, बड़े बेबाक लोग हैं।
ज़िंदगी की इस इकलाई में, कहां साथ लोग हैं।

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7 OCT 2023 AT 14:13

उलफत पर तकलीफों ने जब से डेरा डाला है,
दर्द की समुंद्र में तब से वो मतवाला है।

कई बार सोचा था, उस रास्ते पे जाने से पहले,
संभालने को उसकी मंज़िल,
अब कौन आने वाला है!

खुद को बिखेरना पड़ता है जिंदगी में,
लम्हों के जर्रे-जर्रे को जोड़ने के लिए।
मरते इंसान को शायद ही किसी ने,
कभी मौत के मुंह से निकाला है।

कोशिश हर बार की अक्सर,
उम्मीद जगाया करती थी।
कौन जानता था की वक्त ने,
ख़ुद पे लिए, हर घाव को पाला है।

उलफत पर तकलीफों ने जब से डेरा डाला है,
दर्द की समुंद्र में तब से वो मतवाला है।

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6 OCT 2023 AT 13:39

वक्त की अदायगी बड़ी मुश्किल में डाल रही है,
हालातों पर सुनामी सा मंज़र घाल रही है।

रुक जाना अगर नियत होती तो थम जातें थोड़ी देर,
कदमों को संभलने से पहले, ये अपना असर डाल रही है।

ख़्वाब थे कुछ, जो सजाए थे सूरत बदलने को,
रंग बदल कर ये अपना, पंक डाल रही है।

मंज़िल पाने की चाहत होती है, हर राहगीर को,
उम्मीद भरे रास्तों के दिल में,
क्यूं ना जाने ये पत्थर पाल रही है।

वक्त की अदायगी बड़ी मुश्किल में डाल रही है,
हालातों पर सुनामी सा मंज़र घाल रही है।

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9 MAR 2023 AT 11:58

क्या माफ़ करना गलती पर,
इतनी बड़ी सजा होती है?
जो एक हमनशीन अपनी बातों से,
हर बार आंखों को रुला रहा है।...

Full poetry in caption...

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8 MAR 2023 AT 21:39

मुस्कुराने की आजकल वजह ढूंढती हैं,
इश्क फरमाने की वो आजकल अदा ढूंढती हैं।

उलझी ख्वाबों में सिमट कर मुरझाई थी कब से,
अब, ख्वाहिशों को खिलाने की, वो जगह ढूंढती हैं।

वक्त भी बेवक्त सा, कभी-कभी छेड़ता है उसको,
उदासियों को मिटाने की, वो हर फिजा ढूंढती हैं।

हर रंग निखर के आजकल, आते हैं चेहरे पर उसके,
कदम साथ बढ़ाने की वो हर रजा ढूँढती हैं।

अक्सर रोकती है मुश्किलें, चाहतों को मिलने से उसके,
वो संग हर रोज, अरमानों का पता ढूंढ़ती हैं।

मुस्कुराने की आजकल वजह ढूंढती हैं,
इश्क फरमाने की वो आजकल अदा ढूंढती हैं।...

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14 AUG 2022 AT 21:23

मेरे वजूद का हर पन्ना,
तजुर्बों से भर रहा है।

चमकता सा कोई सूरज,
धूमिल रोशनी में बिखर रहा है।

किनारे हैं कई, मंज़िल अनेक हैं,
पर मन हो कर मतवारा,
समुंद्र की लहरों से डर रहा है।

पत्थरों से भरे हैं रास्ते,
और हौसलों का जिस्म अकड़ रहा है।

मेरे वजूद का हर पन्ना,
तजुर्बों से भर रहा है।

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18 APR 2022 AT 22:10

ख्वाहिशों की दुनिया, मुसाफिरों का शहर
तलाश में खुद के कई हो रहे बेघर।

बर्बादी का मंज़र, अफराह-तफरी का बसर,
डूब कर उजालों में सब हो रहे बेअसर।

थकी-थकी सुबह, और फिजूल गुजरती रात,
धुंध भरे दिन आजकल और बे-मौसम बरसात।

आग-उगलते रिश्ते, और आंसू से गीले हालात,
रिश्तों से उलझी धरती और खर पतवार सी बिखरी याद।

नींद तलाशती आँखें, जिस्म से रूठती सांस,
उलझन को तोड़ती हर कोशिश हो रही बर्खास्त।

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4 FEB 2022 AT 15:21

कई दिन गुजरे और कई रात हुई,
आज के दिन ही आपसे,
करीब महीने भर पहले मुलाकात हुई...

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