कुछ यादें और नज़्में, अनकही बातें, आंखों का मिलना, बिन इजाज़त के इकरार करना और एक लम्बी ख़ामोशी,,, फ़िर आंखों का छलक जाना,,,और किरदार का बिखर जाना,,,, शायद उल्फ़त है,,,,
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मेरी मोहब्बत को वह अक्सर रौंद जाती है ,,,
गुमान से गैरों को किस्तों में अपने जिस्म के कपड़े बांट आती है,,,
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चिराग़ बुझ गए महबूब की तपन में,,,
ये महताब आज फिर जलेगा आफताब की इंतजार में,,,,,-
इतना नाज़ुक था , कि छुते ही बिखर गया,,,,
शायद , मोहब्बत का सताया था,,,,,-
काश तू जमीं होती,,, और मै फलक होता,,,
बारिश की बूंदें बन,,,तुम्हे हल्के से छूने की कोशिश करता,,,
फिर तुम्हारे जुल्फों से होते हुए,,
तुम्हारी पेशानी के शिकंजों को,,,
अपने लबों से सुलझाकर, ,,
पलकों को भिगोकर,,, नैनो का दीदार करते हुए,,,,
"उन मखमली होठों तक का सफर तय करता",,,,
हर उस सुबह को शाम,,,
और हर उस शाम को रात,,,
और हर उस रात को लंबी कर देता,,,
जिस रात तू मेरे पास होती,,,,
और जिस रात तू मेरे पास न होती,,,,,
अपने जिस्म के कतरे-कतरे को,,
तुम्हारी गैरमौजूदगी मे ये एहसास दिलाता,,,
कि हां बेहद , "अजीज" हो तुम,,,
और गर, "तुम ना मिली तो कहीं थम सा जाउंगा",,,
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जिस्मों को आज़माना ,उसे अपना हुनर बताती है,,,,
इसलिए, तारीखों की तरह अक़्सर, वह महबूब बदल लिया करती है,,,,-
हम तेरी ही शहर के भटके हुए मुसाफ़िर हैं,,,,
ए साकी तू,,पिलाता जा आज दवा घोल के,,,,,,,,-
हर किसी की ख्वाहिशों में तु ,,अक्सर शामिल रहती है,,,,
इसलिए ,शायद तेरी तलब मुझे आज भी सोने नहीं देती,,,,,,
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उसकी आंखों की हया आज भी मुझे सुकून देती है,,,
कि,वह आज भी अपने महबूब संग हमबिस्तर,,,,अक्सर बैचैन होकर होती है,,,,,,,,
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