मुझ शून्य का पहला अंक हो माँ तुम.....
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मैं मुसाफ़िर अपना साथी
तुम स्थिरता की दर्शक हो
मैं मृग एक भोला - भाला
तुम हिरनी अति चंचल हो।
मैं सरकारी में पढ़ा हुआ
तुम प्राइवेट की गढ़ी हुई
मैं पाटी में लिखने वाला
तुम पेपर में कढ़ी हुई।
मैं गाँव का एक ठहरा पोखर
तुम नदिया सी बहती हो
मैं टायर दंड खेलने वाला
तुम चौपहिया में रहती हो।
मैं खलिहानों का एक कृषक
तुम निगमित पेशा करती हो
मैं बुस्कट पैंट पहनने वाला
तुम नित परिधान बदलती हो।
मैं कंटक सा रहने वाला
तुम पुष्पों की कालिका सी
मैं साधारण सा दिखने वाला
तुम प्रम्लोचा अति भावन हो।
पता नहीं ये अपना मेल
क्या मिलाप कर पाएगा
पता नहीं ये अम्बर
क्या धरणी से मिल पाएगा।-
वृद्धाश्रम बनने लगे
जब गावों ने खुद को शहर बना लिया,
रिश्तों का मर्म भी बिखरने लगा
जब अटारियों ने शिखरों को अपना लिया,
शहरों की आबो हवा में
कभी दिखावे में, कभी पहनावे में
आधुनिकता की धुरी को,
सभ्यताओं की आड़ में
नैतिकता का गला घोंटकर
हमने खुद को ऊँचा दिखा दिया !-
अभी हूँ पास
मिल लिया करो यार
क्या पता वक़्त का
अगला कल कब हो
कभी तुम बांट लिया करो
कभी मैं खुद को
क्या पता वक़्त का
ये अंत ही मेरा आज हो-
चुनाव मेरा है................
इसलिए इस पथ का हर संघर्ष मेरा है
दुःख भी मेरा, सुख भी मेरा
तमस भी मेरा, सत्व भी मेरा
बिखरना भी मेरा, संवरना भी मेरा
हार भी मेरी, जीत भी मेरी
पड़ाव के अंतिम पग तक
लब्ध, हर परिणाम है मेरा।-
जगह भी वही, वजह भी वही
दुकान भी वही, मकाम भी वही
वही उबलती चाय, वही एक टपरी
ग़र कुछ नया है यहाँ तो मेरा अकेलापन!-
अनंत को खोजता हुआ मन अनन्त में विलीन हो जाएगा और इस तरह जीवन चक्र का अंत हो जाएगा। रसों की प्राप्ति की वांछा भी शून्य हो जाएगी एवं सुख, संपदा, वैभव, यश, कीर्ति आदि सभी का दूर तक कोई नाता नही होगा, जिजीविषा होकर भी नही रहेगी। जन्म में नए शरीर में आत्मा का आना और मृत्यु में उसका उसे त्याग देना... इस चक्र की क्या पुनरावृत्ति होती है ? अगर हाँ तो क्यूँ ? अगर नहीं तो ये चक्र क्यूँ ? क्या कर्म का इसपर प्रभाव पड़ता है ? अगर यह चक्र है तो इससे मुक्ति कैसे मिलेगी ? और मिलेगी ही यह भी तो सच नहीं। बुद्ध को मोक्ष प्राप्त हुआ या फिर उस काल में सभी को यह कैसे निर्धारित होगा ? फिर क्या माने अपने जन्म और मृत्यु का कारण ? आत्मा , परमात्मा से अलग होती है और अंत मे उसी मे विलीन हो जाती है इसका क्या अर्थ है ? ऐसे तमाम प्रश्न है जिनके उत्तर तो मिल सकते है लेकिन आवश्यक नहीं कि संतुष्टि मिले। इसलिए अपने जन्म का उल्लास मनाइये और मृत्यु का आनंद लीजिए एवं इसके मध्य की अवधि को भोगिये क्यूंकि अनंत तो अंतहीन है न वहाँ जन्म है न मृत्यु, जो है सब यहीं है ये प्रश्नोत्तरी भी यहीं है सुख भी यहीं है दुःख भी यहीं है, यहीं है नर्क और स्वर्ग भी यहीं है।
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मन का स्थायित्व ; तन की स्थिरता प्राप्त करने में महती भूमिका निभाता है जिस प्रकार दूरस्थ से ही अग्नि की तपन शारीरिक तापक्रम को घटा देती है।
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एक स्त्री जानती है
विदाई की अहमियत
ससुराल का आशय
मायके का वियोग
नौ महीने की पीड़ा
हर महीने का संघर्ष
नव सदन का सृजन
नातों का समागम
घूंघट में झुकी आँखें
रिश्तों में दबी आकांक्षाएं-