ख़ुद से मिलने को
दूर की नज़र लाया हूँ |
उजाले छानकर अब
अंधेरों में लौट आया हूँ||-
अंधेरों की बस्ती में
इक लौ जलाये बैठे हैं
कलम को मशाल
मसि आग बनाये बैठे हैं-
दर्द की आँधियों से गुज़रोगे तुम भी
यूँ आग मोहब्बतों की ना लगाया कीजिए
रुकोगे कभी बीच परवाज़ के तुम भी
ग़ुरूर को ना हक़ हवा मत दिया कीजिए
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बीते बचपन का
एक पल ऐसे उठा लेती हूँ
उँगली पर चंचल
एक तितली को बैठा लेती हूँ-
उसकी जुस्तजू रही होगी
जन्मों से हमको
उसके शब्द यूँ ही कानों में
गूंजा ना लिये
निकल पड़े हैं ढूँढने जहां में
अब हम उसको
जिसके पैरों के निशान भी
दिखाई नहीं दिये-
बहुत तेज़ जीवन की रफ़्तार
आज इधर तो कल उस पार
शांति नहीं हैं पर दिशायें चार
एकांत ना पहुँचने पाता द्वार
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किसी की सही ना किसी की सहेली है
उलझी रही जो मोहब्बत वो पहेली है
एहसास जज़्बात से करती अठेली है
मोहब्बत यारों अनबूझ पहेली है-
तेरे बदन की ये जुंबिश
काफ़ी सुबूत है तेरे होने का
तू मेरा एहसास नहीं है
यकीनन सुबूत है मेरे होने का
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अकेला हर शख़्स है
तो यारों
अपने हिस्से की कोशिश
करो यारों
चिराग़ एक जलाओ
तो यारों
मशाल एक उठाओ
तो यारों
हाथ को हाथ डाल
चलो तुम
विश्वास मन में जगाओ
तो यारों !
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हमको हुआ
तुमसे वो
मुझसे मेरा वाला प्यार
कमाल देखो सरकार !
तुमको हुआ
है मुझसे
तुमसे तुम्हारा वाला प्यार
मान लो सरकार !
हमको तुमसे
तुमको हमसे
दीवानों का दीवानों
वाला प्यार !
तय हुआ सरकार !
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