औरत जब पति की सफेद शर्ट सूखाती है
तब रेलिंग पर पहले अपनी धुली साड़ी बिछाती है
और ऊपर से भी आँचल से ढंक देती है
ताकि दाग़ उसके हिस्से आए...-
ज़ीस्त की कीमती लम्हों को ठुकरा दिया,
मोती लुटा दिए नैनो के सारे,
चराग़ बुझा दिए चेहरे के सारे
और सांसों की सारी अशर्फ़ियाँ गवां दी...
बचा कर रखी तो सिर्फ अपनी आंखे
ताकि देख सकूँ मुकम्मल होता इश्क मेरा...-
आज साल बदला पर मन पहले सा ही बेचैन है क्योंकि साल बदल जाने से कुछ बदल नही जाता। इंसान वही रहता है जो था पिछले साल या उससे भी पिछले साल।
साल तो हर साल बदल जाता है पर हमें इतना बदल जाने में पता नही कितने साल लग गए हैं।
जब कोई फूल मुरझा कर जमीन पर लोट जाता है तब बदलाव तकलीफ देता है।
पर कभी कभी बदलाव अच्छा लगता है, जब जेठ की गर्मी के बाद बारिश का मौसम आ जाता है...
हर साल के शुरुआत में सोचते हैं कि साल की आखिर में सब ठीक होगा, ठीक होगा का मतलब मंज़िल का मिल जाना! पर मंज़िल कब मिलती होगी? मंज़िल तो अंत मे मिलती है, तो सभी मंज़िल को प्रारम्भ क्यों समझते हैं! और अंत तो मौत है तो क्या मौत मंज़िल है?
तो क्या उम्र भर हम मौत का इंतजार करते हैं!
कभी जीते नही, जन्म से ही मौत को मंज़िल समझ के उसके पीछे दौड़ते रहते हैं और रोज ही मरते हैं पर ऐसे रोज मरने पर मंज़िल नही मिलती...
क्या कभी मंज़िल मिलती है?
कब मिलती है?-
नहाते हो ,
खाते हो ,
सोते भी हो ,
सांस भी लेते ही होगे ,
दुनिया के नज़ारे भी देखते होगे ,
और ज़िंदा भी हो!
तो नए साल से इन रूटीन में
खुशियों को भी एडजस्ट कर लेना मेरे बन्धु...-
जब आंखें बातें करती थी
और लब सब सुन लेते थे,,
जब उनकी नजरें चेहरे को छूती थी
तब पलकों की चादर ओढ़ लेती थी मैं,,
जब चुपके से किसी बहाने
मेरे हाथों पर उनके हाथ आ बैठे
उस दिन हया को मैंने भी चखा था,,
कहने वाली सारी बातें
जब चाय संग निगल गए थे हम दोनों
और उसी पार्क में बैठे बुजुर्ग जोड़े में हमने भी
इतने लंबे सफर की कल्पना की थी...
आज फिर पहली मुलाक़ात के उन्हीं लम्हों में
सिमट जाने को जी चाहता है...-
ना लिखना कभी तुम
और प्रेमियों की तरह मेरे रूप पर गजलें
ना लिखना तुम मेरी अदाओं पर शेर
तुम लिखना तो लिखना
मेरे क्रांतिकारी मस्तिष्क के बारे में...
और कहना बदलना मत खुद को
किसी और के लिए...-
बुजुर्गों की नज़र में हमें बिगाड़ने वाली संगत
असल में हमें जीना सीखा रही होती है-
एक अच्छी कविता उलझ के रह गयी,,
मेरे दिमाग के उस भँवर में
जहाँ लोग खिल्ली उड़ा रहे थे मेरी...
कुछ बेहतर लिखा जाना था उस दिन,,
पर मेहमानों की चाय की चुस्कियों संग
वो भी निगली गयी...
एक सुंदर नज़्म,,
उंगली के पोरों में अटक गई...
ग़ज़ल के कुछ शेर,,
खिड़की पर टँगे सूख गए...
जब भी अच्छे शब्दों का चुनाव किया,,
पर नासमझ लोगों की वजह से
उन्हें मिटा दिया...
मन का लिखना चाहा,,
तब लोगों की सवाली नज़रों ने
उसे पहले ही भस्म कर दिया...
और जब भी बग़ावत लिखना चाहा,,
तब खुद ही आसुओं संग
उसे भी लील लिया मैंने...
सारे खांचों में बैठने लायक
कविता लिखूंगी एक दिन,,
ये सोचते हुए हर रोज़ की तरह
आज भी नींद आ गयी...-
कलम में मोहब्बत की स्याही भारी है
हर्फ़-दर-हर्फ़ मैं तुम्हें लिखना चाहती हूं
पर हर सफ़्हे पर बेबसी लिखी है...-