Abani Kumar Satpathy   (अवनी कुमार🖋️)
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न मैं कोई सायर, न ही कोई कवि
लिखता हूँ सच की स्याही से, बास्तवता की
छबि!
Joined 28 April 2019


न मैं कोई सायर, न ही कोई कवि
लिखता हूँ सच की स्याही से, बास्तवता की
छबि!
Joined 28 April 2019
27 MAY 2023 AT 6:47

तुम्हारे बाद गर कोई मन में छाया तो वो है चाय
तुम्हारे बाद गर कोई मन बहलाया तो वो है चाय ।

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14 MAY 2021 AT 22:23

मैं तो फकीर हूं मुझे घर बनाने दो,
मस्त मगन मन की बात बताने दो ।

अनदेखा करो नरसंहार की मौतें ,
आम जनता ही है अंक छिपाने दो ।

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13 MAY 2021 AT 12:14

वबा के वक्त ये बवाल कैसा है ,
मन से पूछो ये सवाल कैसा है ?


जब चाहिए था चादर हमको ,
दे के वो पूछे रुमाल कैसा है ?

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21 MAR 2021 AT 21:31

सुनो,
मुझे ज़रा सांस लेने दो,
हाँ पता है रुकना नहीं है,
पर मुझे थोड़ा समय लेने दो ।

हारा नहीं हूँ बस घबरा गया हूँ,
गिरा नहीं हूँ पर रुक गया हूँ,
मुझे ज़रा संभलने तो दो,
माफ़ करो, पर मुझे थोड़ा सोच लेने दो ।

मेरी मंज़िल तो मानो दूर है अभी,
ज़रूर एक दिन वहां पहुँचेंगे कभी,
बस मुझे सही रास्ता चुन लेने दो,
रुको जरा मुझे पल भर ठहर जाने दो ।

ये जो काला कल है उसे हटने दो
ज़रा सुबह होने दो कल आने दो,
एक बेहतर ज़िंदगी ज़रूर आएगी,
सब्र तो करो थोड़ा मेहनत करने दो ।

राह में रूह की कीमत समझने दो,
मंज़िल अलग है मुकम्मल होने दो,
तुम्हें जाना है तो जा सकते हो,
शांत रहो, मुझे थोड़ा समय लेने दो ।

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15 MAR 2021 AT 23:12

कहानी जो तुम सुना रहे हो,
बात को तुम जो घुमा रहे हो,
सच्चाई क्या है तुम ही देख लो
आस के जाल में फंसा रहे हो ।

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8 MAR 2021 AT 22:32

ବିଳାପ

ନିଶବ୍ଦ ସହର କିନ୍ତୁ ଛାନେ କେ ଛାନେ ରେଳ ଗାଡ଼ିର ହର୍ଣ୍ ।
ହର୍ଣ୍ ର ଧ୍ଵନି ଏତେ ତିବ୍ର ଥିଲେ ବି ସେ ବିଳାପ କୁ ବଳି ପାରୁନାହିଁ ।
ଯାହା ଭାସିଆସୁଛି ସନ୍ଧ୍ୟା ର ଆଗମନ ପରେ ହିଁ କୋଉ ଅଦୃଶ୍ୟ କୋଣରୁ ।
ଚଞ୍ଚଳ ଇଲାକା, ଗହଳି ଓ ଗାଡି ର ତୀବ୍ର ଧ୍ୱନି ଆଜି ଯେମିତି ଗଭୀର ନିଦ୍ରା ରେ ସୋଇ ପଡ଼ିଛି।
କିନ୍ତୁ ମନର କୋହ କୁ ମନରେ ନରଖି ମନର ମିତ ପାଇଁ ବାହୁନି ବାହୁନି ଅଶ୍ରୁ ଢାଳୁଛି ସେ ।
କହି ଚାଲିଛି କେତେ ଅନ୍ତଙ୍ଗର ଅନ୍ତେର୍ଣୀଭା ଅକୁହା କଥା କୁ ।
ଥରେଇ ଦେଉଛି ତାର ଅଭିମାନ ମିଶା କଣ୍ଠ ଥରା ବିଦାର କ୍ରନ୍ଦନ ।
ମାନସ ପଟରେ ଆଙ୍କୁଅଛି ଅନେକ ଅସ୍ପଷ୍ଟ ଓ ରହସ୍ୟମୟ ରଚନା ସବୁ ।
ନିଶାର ର ଗର୍ଜନ ଆଜି ତା ତାଳେ ତାଳେ ତାଳ ମିଳାଇ ବାହୁନୁ ଅଛି ତା ସହ ।
ଧକେଇ ହୋଇ ଦୋହଲେଇ ଦେଉଛି ସେ ଶୀତଳ ରଜନୀ ର ଶୀତୁଆ ପବନକୁ ।
ଅର୍ଦ୍ଧାକାର କଳଙ୍କିତ ଜହ୍ନ ଧୀରେ ଧୀରେ କୁହୁଡ଼ିର ଆବରଣ ରେ ଢାଙ୍କି ହେଇ ପଡୁଛି ।
ଅଦୃଶ୍ୟ ହେଇ ଯାଉଛି ଆସ୍ତେ ଆସ୍ତେ ଚକ୍ଷୁ ଯୁଗଳ ଆଗରୁ ଓ ମାଡି ଆସୁଛି ଏକ ଅନ୍ଧକାର ର ପରଦ ।
କରାଳ କଳା କ୍ରମଶଃ କରୂଳ କ୍ରନ୍ଦନକୁ କାଳ କୋଳରେ କୋଳେଇ ଦେଉଛି ।
ଶୋକ ତପ୍ତ ନୟନରେ ଆକାଶ ଢାଳି ଚାଲିଛି କାକର ର ଶ୍ୱେତ ଅଶ୍ରୁ ବିନ୍ଦୁ ଟିକେ ସାନ୍ତ୍ୱନା ଦେବାକୁ ।
ଧରା ଦେବାକୁ ଚେଷ୍ଟା କରୁଛି ଟିକିଏ ଉଷ୍ମତା ତା ଧୂଳି ର ଘନ ଆବରଣ ରେ ।
ସହର ଶାନ୍ତ ପଡି ଯାଇଛି ଅନ୍ଧାରି ଗଳି ରୁ ଆସୁଥିବା ଶ୍ବାନ ର କରୁଣ ଶବ୍ଦ ରେ ।

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2 MAR 2021 AT 17:03

आवाम

एक आंदोलन चल रहा है एक आन्दोलन बाकी है
हक के लिए लढ़ रहे हैं एक आंदोलन साक्षी है ।

आवाज़ को यूं बुलंद रखो तो सत्ता भी तो डरती है !
शांति अहिंसा बनी रहे तो सरकार भी तो झुकती है ।

नाकाम करने नेक इरादे बनती कहानियाँ कितनी हैं ।
झुके जो सर हुकम के आगे तो फिर कैसी जवानी है ।

जनता को यहां जुमला बेच वो करते राजनीति हैं ।
जड़ से जुड़े मुद्दों को ढूंढो हवाऐं रुख बदलती है ।

आन्दोलन यूं चलता रहेगा सरकार झूठा वचस्वी है ।
गांधी-भगत के देश में आवाम सदा आंदोलनजिवी हैं ।

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8 DEC 2020 AT 23:05

जो रोज देश चलाते हैं, आज बो बंद कर रहे हैं,
ये उत्पीड़न के गंध देखो किधर से आ रहे हैं ।

जमीन छोड़ देखो राज रास्तों में वे सोए हैं ।
आदमी से आसमान तक उनके साथ खड़े हैं ।

बिना किसे के सहाय लिए आज खुद लड़ रहे है ।
हक के लिए हाकिम के आगे वीर दबंग खड़े हैं ।

अन्नदाता वे किसान भाई आज जाग उठे हैं,
सत्ताधारी जरा नींद से जागो देश संकट में हैं ।

कृषि से समाज कृषि से विकास सभ्यता खड़े हैं,
देखो मेरे प्यारे देश में जवान -किसान लड़े हैं ।

गुलाम नहीं वे दोनो किसी के, खुद में मिसाले हैं,
फसल उगाने वाले के लिए, अब ये कैसे फैसले हैं ।

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5 OCT 2020 AT 23:32

मांग !

संसार उसका है उसे क्या तेरा एहसान चाहिए ,
भगवान नहीं अब हमे इंसान चाहिए ।

लड़कियां आज लकड़ी की कठपुतलियां मात्र है,
सिर्फ इंसाफ नहीं साथ समाधान चाहिए ।

झूठ बोल के गुमराह करके सियासत मस्त है,
जुबान तो जुमला ही है यहां बिधान चाहिए ।

पहले गांव कस्बे बस्ती अब नारी जलने लगी है,
जलते मसान नहीं उन्हें सम्मान चाहिए ।

पूंजीवाद और सियासत की देखो मिली भगत है,
झुठे बयान नहीं हमे किसान चाहिए ।

वतन के नाम मर मिटने को सदा खड़े रहते है,
शहादत नहीं जिंदा हर एक जवान चाहिए !

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2 SEP 2020 AT 22:43

वो मोहब्बत जो जिस्मानी हो,
क्या उसे प्यार कहते हैं ?

मुश्किल वक्त में जो मुह मोड़ ले,
उसे कैसा यार कहते हैं ?

जो खामोश रह कर हक छोड़ दे ,
आसान लफ्ज़ में लाचार कहते हैं !

मजबूरी में कोई गर पकड़ो तलने लगे,
क्या उसे रोजगार कहते हैं ?

जो जनता का तकलीफ ना समझे,
क्यूं उसे सरकार कहते हैं ?

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