मेरी हसी के पीछे जर्रा –जर्रा जुड़ा हुआ हूं। मैं
देख मेरी परछाईं कितना टूटा हुआ मैं।।
— आयुष राठी
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एक अधूरा सपना
चांदनी रात्रि, धुंधला चेहरा, ललाटम् पर बिंदी, पैरो की छम-छम करती पायल की ध्वनि .. कोकिला सी वाक् से कुछ कोकिल करती मधुर आवाजे..
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गांव में अब पहले जैसी बात नहीं होती।
शायद से पहले जैसे यारो में मुलाकात नहीं होती।।
जब शहर के लिए निकले तो गांव की याद आती है बहुत।
गांव में आते ही फिर क्यों गाम वाली बात नहीं होती।।
शाम को पकड़म पकड़ाई, हूल कबड्डी नहीं होती।
वालीवाल से लेकर ताश तक में पहली जैसे हाजमो की बरसात नहीं होती।।
शाम को जब साथ बैठे पड़ोसी भाई बंधु।
अपने बुजुर्गों के साथ शाम को हुक्का पे वो मुलाकात नहीं होती।
गांव में पहले जैसी बात नही होती..।।।
वो प्यार , वो भाई चारा।
वो भूमिया पर बैठकर स्वादुसा नजारा।
गांव में पहले जैसी बात नहीं होती..।।
—आयुष राठी
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द्वंद जब खुद से हो ,
तो हार किससे हो।
अपने से भी जीतकर,
फिर जीत किससे हो।— % &-
इस सड़क में कितने सफ़र हैं,
न जाने कितने हमसफ़रों में अपना सफर है।— % &-
परिभाषा सी परिभाषित जो
हृदय की सुंदरता से सुसज्जित जो
पर्वत सी मजबूत सी जो
नदिया जैसे सरल सी जो
समुंदर की गहराई सी जो
आकाश जैसे ऊंचाई सी जो
पिता जैसे कठोर सी जो
मां जैसे कोमलता सी जो
— आयुष राठी
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शायद से कुछ तो जाना होता
वरना आज बेगाना न होता
हमदर्द तो समझे हम भी थे
पर उस दवा का सहारा ना था-