दुआओं के धागे मैंने कभी बांधे ही नही,
माँ की गोद मे सोते ही मुरादे पूरी हो जाती थी।-
ना ही ज़ात, ना ही कोई धर्म हूँ,
मैं रामायण के श्लोक से उठता हूँ,
ईशां की अज़ा... read more
वर्दिपोष कातिल
मैंने जाँच के आदेश दिए और खुद टीम गठित कर के पूरी जाँच पड़ताल करवाई। उस लाश को जो कल रात से लावारिस पड़ी थी उसका स्वयं खड़े हो कर दाह संस्कार करवाया। जाँच की रिपोर्ट आने पर और जो बिल्ला मुझे लाश के पास मिला उन सभी तथ्यों के साथ मैंने कमिश्नर से बात की तो एक मौत की कीमत के तौर पे सज़ा में छः महीने का मामूली निलंबन हो रहा था। वजह पूछी तो मैं दंग रह गया, वजह बताई गई आंतरिक सज़ा है ये वर्दीपोष की जिसमे आधी तनख्वाह के साथ छः महीने का अवकाश। मैंने न्यायिक जाँच को अपने न्यायालय में ले कर के गया और पूर्ण प्रक्रिया के साथ उस परिवार को न्याय और अपराधियों को बीस वर्ष की सज़ा और आजीवन निलंबन का आदेश जारी किया। आज मैं खुद से खुश था सरकारी गाड़ी से घर लौट रहा था कि देखा ट्रैफिक पे हवलदार बेफ़िज़ूल कर वसूल रहे है। ऐसी कितनी ही मौतें होती होंगी जो किसी की नज़रों में आये बगैर ही गुमनामी के अंधेरे में खो जाती है। उस कानून पे कैसे कोई भरोसा करेगा जो अपने प्रतीक चिन्ह में ही अंधी और सड़कों पे वर्दीपोष कातिल बनी घूम रही है।
भाग ५ (अंतिम भाग)-
वर्दिपोष कातिल...
ख़ाकी दस्ता उन्हें किसी भेड़ बकरी की तरह खदेड़ रहा था। उसी भीड़ में से एक शख्स ने कहा "कल तो रात में इसको वर्दीपोष दो सिपाही उठा ले गए थे"। इस बात पे एक सिपाही ने उसे दो लाठी खींच के मारी तो उसकी ज़बान ज़ब्त हो गयी। मुझसे अब ये और देखा नही गया तो मैंने सिपाही को फटकार लगाते हुए कहा " किसने मारने का हक़ दिया है तुम्हे?" जिसपे उसने बड़ी बदतमीज़ी से जवाब देते हुए कहा कि "अभी जाओ वर्ना खामखां तुम भी खा जाओगे एक दो"। अब पानी सर पे चढ़ता देख मैं सिपाही के पास गया और उसे अपना पहचान पत्र दिखाया। पेशे से मैं उच्च न्यायालय का जज था सो ये देखते ही उसके चेहरे पे सफेदी छा गयी। मैंने उस व्यक्ति से पूछा जिसने कुछ देर पहले ही गवाही दी थी "देखो डरो मत क्या देखा था तुमने?" जिसपे दर्द में कराहता हुआ बोला "बाबूजी, कल रमेश भईया दुकान बढ़ा रहे थे कि तभी दो सिपाही आये और तम्बाकू मांगे, जिसपे रमेश भईया ने उनको दिया तो वो जाने लगे। भईया के पैसे माँगने पर उन्होंने उनको बहुत मारा और गुमटी भी तोड़ दी। फिर भईया को गाड़ी में बिठा कर ले गए"। मैंने कहा तुम पहचान पाओगे उन्हें तो बोला "नही बाबूजी हम दूर खड़े थे पर जो गाड़ी चला रहे थे उनकी शक्ल देखी थी।"
भाग ४-
वर्दिपोष कातिल...
"लावारिस है..?" मेरे पूछने पे की आप ये बिना शिनाख़्त किये कैसे कह सकते है? पे जवाब आया "ये कानूनी प्रक्रिया है इसमें ना ही पड़े तो बेहतर है।" मैंने बिना वक़्त ज़ाया किये लाश के पास गया और उसकी जेब टटोली तो उसकी बाईं जेब से एक आधा टूटा फ़ोन मिला। मैंने किसी तरह उस फोन के सिम को निकाला जिसपे सिपाही रोक टोक करने आये। मुझे कानूनी कार्यवाही में न पड़ने का हवाला भी दिया गया। मैंने चुप चाप सिम को अपने फ़ोन पे लगा के उसके घर वालो को कॉल कर के हादसे की खबर दी। बड़े अफसर ने अनैतिक तरीके से कई बार मुझे धमकाने की कोशिश भी की परंतु चलती फिरती सड़क और सूरज की रौशनी के नीचे थोड़े कमज़ोर पड़ गए।
उसके घर वाले थोड़ी ही देर में पहुँचे तो देखा तीन चार छोटे बच्चों के साथ एक औरत जिसकी उम्र करीबन बाईस साल से ज़्यादा की नही होगी। फ़टे पुराने कपड़ो में साथ मे कुछ मोहल्ले वाले भी उस भीड़ में मौजूद थे। लाश को देखते ही उसकी बेवा बिलख के रोने लगी और बच्चे अपने पिता को थप थपि दे कर जगाने की कोशिश कर रहे थे। वो इतने छोटे थे कि शायद ये समझ ही नही आ रहा था उन्हें कि उनके पिता अब कभी नही उठेंगे।
भाग ३-
वर्दिपोष कातिल...
सिपाही मेरे पास आया और बोला
सिपाही "आपको बड़े साहब बुला रहे"
मैं गया बड़े अफसर के पास तो उन्होंने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा और फिर पूछा "यहाँ के तो नही लगते..? जिसपे मैंने कहा कि "जी नही मैं यहाँ पे नया हूँ"। फिर कुछ अनगिनत सवालों की बौछार मेरे ऊपर होनी शुरू हो गयी। करीबन तीन घण्टे की लम्बी बेबुनियादी जाँच और स्वलातों के दौरान वो लाश जस की तस वहीं पड़ी रही और अब तक मे उस लाश के पास कुछ दो तीन कुत्ते, कौवे और मक्खियाँ भिन्न भीनाने लगी थी। आला अफसर को इतना भी गवारा न हुआ कि वो तफ़्तीश थाने में कर ले। मेरी दरख़्वास्त के बावजूद बड़े अफसर और उनके सिपाहियों के कानों में जूं तक नही रेंग रही थी। मेरी तफ़्तीश खत्म होने के बाद जब मैंने आखरी बार पूछा कि क्या अब आप इस लाश की शिनाख़्त करेंगे तो ऐहसान जताते हुए बड़े ही मगरूर लहज़े में उन्होंने कहा "हाँ, आप जाइये ये लाश लावारिस है"।
भाग २-
वर्दिपोष कातिल...
नए तबादले के साथ नया शहर , नया बंगला, बिखरा हुआ सामान पूरे घर मे पर बालकनी से देखने पे अगर कोई चीज़ नही बदला तो वो था मौसम का मिजाज़। रात भर कड़ाके की बारिश के बाद सुबह मिट्टी की वो सौंधी सी खुशबू। जो ठीक मेरे घर कानपुर की याद ताज़ा कर रहा था। लेकिन, इसे बड़े से शहर में सुकून नही था ख़ैर, सुबह सुबह टहलने निकला तो थोड़ी दूर चलते ही देखा कि फुटपाथ के पास एक लाश पड़ी थी। बिल्कुल बेतरतीब और हैवानियत की छाप उस लाश के जिस्म पे साफ दिखाई पड़ रहा था। बड़े ताज्जुब की बात ये थी कि उस रास्ते से कई लोग गुज़रे और कई लोगो की नज़र भी गयी पर सभी नज़र बचा के निकल गए। मुझसे ये मंज़र देखा न गया तो मैं लाश के पास गया और देखा जिस्म पे अनगिनत लाठियों की मार पड़ी थी। मैंने वक़्त न ज़ाया करते हुए हमारे देश की आंतरिक सुरक्षा करने वाले बेहद ईमानदार ख़ाकी दस्ते को बुलाया। लाश को मैं इक टक देख रहा था कि तभी नज़र पड़ी लाश के पास पड़े एक बिल्ले पे जिसपे नाम और सर्विस नंबर लिखा था।ख़ाकी दस्ता वक़्त का पाबंद हर बार की तरह इस बार भी आते आते दो घण्टे लगा चुका था। काफी ज़िम्मेदाराना रवैया दिखाते हुए बड़े अफसर की सिपाही से लाश को देख के कुछ कानाफूसी हुई।
भाग १-
मज़हबी मौत
मैं उस भीड़ का हिस्सा नही बनना चाहता था पर उस मजमे के करीब से
गुज़रते वक़्त मज़हबी छीटाकशी का शोर जो मेरे कानों तक साफ और बहुत तेज़ जा रहा था और आँखों के सामने उस मकान के अंदर का सच घूम रहा था कि न जाने कैसे और कब मैं उस भीड़ में जा कर खड़ा हो गया और सिर्फ एक सवाल पूछा.. रफ़ीक़ चच्चा आपने उन्हें साड़ी पहने देखा था न और केदार चाचा आपने उन्हें सूट पहने...
जिसपे केदार चाचा लपक के बोले हाँ बेटा हमने अपनी आँखों से देखा है जिसपे रफ़ीक़ चच्चा बोले हमने भी साड़ी पहने देखा है। अच्छा तो आप दोनों ने उन्हें उनका पेशा जानते हुए भी इतने गौर से देखा तो ये भी देखा होगा कि उनके घर में पानी की एक बूंद नही थी और सरकारी फरमान के चलते उनके घर मे एक अनाज का दाना तक नही था। काश आपने उस वक़्त उन्हें कुछ मदद कर दी होती तो शायद वो इंसान खुद कौन से धर्म का था इस बात की पुष्टि कर पाता...है न?
अंतिम भाग-
मज़हबी मौत
लाश के जाते ही अब मजमा भी काफी हद तक छट चुका था तो उत्सुकता में मैं धीरे से उस मकान की ओर बढ़ा और लोगो की नज़रों से बचते हुए उस मकान के अंदर पहुंच गया था। पर ये क्या? अंदर तो नज़ारा ही अलग था मैंने जो पिक्चरों और कहानियों में सुना था वैश्याघर वैसा तो कुछ नही था। यहां तो एक टूटा तखत जिसके पावे ईंटों के सहारे टिके हुए थे और सामने नज़र पड़ी तो चौंक गया। बाहर जिस औरत की मज़हब की शिनाख़्त पे चर्चा छिड़ी है उसके इस टूटे मकान में एक कोना ऐसा भी है जो बिल्कुल साफ सुथरा और हैरान करने वाली बात ये थी कि यहाँ पे सभी धर्मों के भगवान/खुदा/बाबाजी या यीशु मौजूद थे। ये सब देख के मेरा दिमाग चकरा गया और आगे कुछ और जानने की इच्छा न रखते हुए बस मकान से बाहर निकलने लगा तो नज़र रसोई घर पे जा गयी। देखा तो सभी कनस्तर खाली पड़े थे मटके की हालत देख के साफ पता चल रहा था कि इस मटके में पिछले 4-5 दिनों से पानी की एक बूंद भी नही रखी गयी। मैं बिना कुछ कहे सीधे मकान से निकला तो देखा जो कुछ वक्त पहले तक कानाफूसी में बातें चल रही थी वो अब तूल पकड़ चुकी थी और मौत के अफसोस के बजाए धर्म की शिनाख़्त पे जंग छिड़ी हुई थी। सब एक दूसरे के मज़हब पे कीचड़ उछालने में ज़रा भी संकोच नही कर रहे।
भाग -४-
मज़हबी मौत
खैर मैं इन सब बातों से परे थोड़ा आगे बढ़ा अपने कमरे की ओर तो एक
उम्रदराज़ गुट बड़ी धीमी आवाज़ में आपस मे फुसफुसाता हुआ बोल रहा था कि पता नही कौन धर्म की थी? तो दूसरे ने कहा ' कपड़े तो हमेशा सलवार सूट पहनती थी शायद मुसलमान होगी तो तपाक से रफ़ीक़ चच्चा बोल पड़े 'अरे कैसी बेगैरतों वाली बातें कर रहे है हमने तो उसे साड़ी पहनते भी देखा है। ये सभी बातें मेरे कानों से होते हुए मेरी रूह तक जा रही थी और मेरे कदम अब ठीक उस औरत के कमरे के सामने जा पहुंचे थे।
मैं चाहता नही था कि मेरी नज़र और मेरे कदम रुके मेरे कमरे से पहले पर पता नही क्यों मेरे कदम उस मकान के सामने जा कर रुक गए। आँखों के कोने से बड़ी हिम्मत करते हुए मैंने उस मकान की तरफ देखा जिसका दरवाज़ा आधा टूटा हुआ था ऊपर से। जिसपे काफी अक्लमंदी से साड़ी को पर्दे की तरह दरवाज़े के ऊपरी हिस्से में बांधा गया था।
भाग - ३-