ये नींद न जाने आजकल खफ़ा क्यों है हमसे
जागती आँखों में अपनी, किसी का चेहरा सजा रखा है
जिनके हर काम को अंजाम देने में जिक्र मेरा आता था,
आज अंजाम उन्होंने मेरा बुरा बना रखा है
ज़ुबान देके भी मुकरे जो बातों से अपनी वो
आज कागजों पे मैंने कारोबार बना रखा है
मेरा तो कुछ हीं बिगाड़ा था उन्होंने,
फिर सबकुछ तो खुद का मैंने ख़ुद ही बिगाड़ रखा है
बड़ी दूर निकल आये हैं खुद से अब
वापसी का किराया भी देने से उन्होंने इनकार कर रखा है
उन्हें भूले भी तो कैसे भूले जिन्हें
अपनी यादों में बसा रखा है
तमाम कोशिशों के बाद भी जो मेरा कभी हो न सका,
मैंने उसे अपनी कविताओं में कैद कर रखा है.
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