आयाम जिन्दगी के   (सुमित कुलहरि)
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Joined 20 March 2019


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रूप-रंग था क्या उसका, कौन जान सका अस्थि का
कौन देख सका लपटों में, जात-धर्म उसका
समा गई वो देह, छोटे से कलश के भीतर
कद क्या था उसका, कौन जान सका अस्थि का ।

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ढूंढने निकला था में सीपियां, मृगतृष्णा के समंदर में
शाम हुई, भ्रम टूटा
दौड़ा सुखे गले ढूंढने, रेगिस्तान का किनारा में
जिन्हें घर समझा,वो फुटपाथ भी ना निकले
लौट आया हूं अब वापस, खुद की दहलीज पर में
ढूंढने निकला था घर, खुद को बेचकर में।

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कैद करे वो रेत को, रेत की बनी मुट्ठी में,
भेद करें वो मन का मारा, नर और नारी में ।

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शर्तों की सीढ़ियां चढ़कर किसे चाहिए प्यार,
में खुश हूं जमीन पर पांव पसार कर बैठने में
मैं बारिशों में भीगा, धूप में नहाया,
हवाओं ने हर बार गले से लगाया बिना एक सवाल के
किसे चाहिए सुकून, खुद का भाव लगाकर
बेकार ही सही तुम्हारी नजरों में मैं,
एक सांस अनमोल मैं खुद के भीतर...।

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शरबत के बाजार में सलिल हो तुम,
मुझे निर्वाण पसंद है ।
दिखावे की चकाचौंध में शांत आधी रात हो तुम,
मुझे ठहराव पसंद है ।
मुर्दों के ढेर में गुलजार हो तुम,
मुझे बदलाव पसंद है ।

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एक अदृश्य, अनचाही परत हट जाती है हर बार
जब भी भीगोती हैं बारिशें मुझें
और पीछे रह जाता है तो बस,
मेरा अनगढ़ अस्तित्व,
जो अनगढ़ होकर भी संपूर्ण है...।

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किसी के स्वार्थ के सांचे में उचित न बैठना,
तुम्हारी अपूर्णता को नहीं दर्शाता...
जिंदगी के सांचे में तुम बिल्कुल उचित बैठते हो ।
सांसों की आवाजाही, प्रमाण है तुम्हारी संपूर्णता का...।

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मैं में क्या है मेरा, ढूंढूं मैं मैं में ही
ढूंढूं तो सांस मिले, मैं था कहीं नहीं...।

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स्त्री पुरुष से पहले, पहले जात-पात से
रूप कुरूप से पहले, पहले काले सफेद से
मैं एक जीवन हूं, एक राग हूं भाषा से पहले ।
एक श्वास हूं, शरीर से पहले...।

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मैं तुम्हारे उड़ने, खिलने, खिलखिलाने में कभी अड़चन नहीं बनूंगा...
तुम्हारी उड़ान, तुम्हारी खुशबू, तुम्हारी हंसी ही तो है, जो मुझे तुम्हारी तरफ खींचती है...
तुम बस एक रिश्ता ऐसा रखना मेरे साथ, जो जमाने के साथ नहीं है ।

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