कोई आंसू पोछे गर तो ज़ख्म बेशक कम हो जाते हैं ,
मगर आंसू सुख गए जो तो दर्द फीके पड़ जाते हैं!
और अब सोचो तो गलत कोई भी नही था,
कि सुना है खुदगर्जी में लोग हमदर्द भूल जाते हैं!
चलो छोड़ो तुम क्या ही बनोगे नूर किसी का,
कि अक्सर रिश्ते निभाने से पहले मेहबूब बदल जाते हैं!
तुम कब तक सहारे दूसरों के चलोगे?
कि सहारा बनने पे 'आस्था',
मुकम्मल कई कर्ज उतर जाते हैं!-
लाख मुखौटों से गुजरी बातें अक्सर तीखी लगती हैं
तुम जाके हाल उनका पूछना जरूर,
कि उनकी नज़रें आज भी भीगी लगती हैं!
बड़ी मशक्कत से अंत मुकम्मल होता है
तुम देखना जंग को करीब से कभी,
हर जीत से पहले एक रणनीति लगती है!
आसान होता होगा मापना किसी की नाकामियों को 'आस्था'
तुम मिलना उस कलम से कभी,
जिसकी स्याही आज भी फीकी लगती है!-
नज़रों की नूर भी बेफिजूल बन जाती है,
सोचो क्या ही होगी खुद्दारी उसकी
जो तामील में धूल बन जाती है!
अदाओं से नपती है,
बाजारों में बिकती है;
वो काफिरों की हबस के चलते हूर बन जाती है!
कि बड़ी सस्ती होती है तस्लीम उसकी;
वो अक्सर ताल्लुकात में चूर बन जाती है!-
वो कहते हैं हम उनके लहज़े में शुमार हैं,
लाज़िम इश्क रंग लाने लगा है हमारा!-
पता है!?
कई सवाल रखा करते थे हम तुमसे पूछने के लिए,
फकत मिलना तुम्हारा हमारा जवाब बन गया!
कि नशे आज भी कमाल रखते हैं हम 'जानी',
मगर मिलना तुम्हारा हमारा शराब बन गया!
और गम कितने भी पेचीदा क्यूं ना हो मगर,
इक मिलना तुम्हारा हमारा नकाब बन गया!
हम समझते हैं बेहद खुशनसीब खुद को,
कि मिलना तुम्हारा हमारा गुमान बन गया!-
हर शक्श खराब है, हर बात विवाद है;
वो दे भी दें गर शराब हमें, हमें लगता हराम है!
मैंने तोड़ दिया था जिसे शान में, हर खंड मांगे पहचान है;
की जरा देखकर रखना कदम अपने, उस मुर्दे में अभी जान है!
किसे सुनाए अपना मलाल हम, किसे दे दें ये खिताब हम;
किसके खड़े हों खिलाफ़ हम, कहां मांगे अब इंसाफ हम!?
कहीं छूटती लगन है, कहीं बिखरते कदम हैं;
बेशक वो छोड़ देती लहज अपनी, पर उसे आवाज़ उठाने की शर्म है!-
कई आंखें तड़पती हैं भरी धूप में;
कि आशियां हर सिर को मिल जाए,
मुमकिन तो नहीं!
जमाना जलील करता ही है बेसहारों को;
मुआइना हर जुबान का किया जाए,
मुमकिन तो नहीं!
आज भी हात अनगिनत बिछते हैं बाजारों में;
अक्श हर किसी का अनछुआ मिल जाए,
मुमकिन तो नहीं!
इन चार दीवारों से बहुत बड़ी है दुनिया 'आस्था';
हर शख्स साफ सुथरा मिल जाए,
मुमकिन तो नहीं!-
सुनो!
मेरे शहर आना मत तुम,
यहाँ आशिकों की कदर नहीं होती;
मैं अपनी दहलीजें लाँघकर
तुमसे मिलने आऊँगी!
तुम्हारी उम्मीदें टूट जाएंगी यहाँ,
सब ख्वाईशें बिखर जाएंगी;
मैं अपने हिस्से का प्यार लेकर
तुमसे मिलने आऊँगी!
तुम्हारा 'कम' भर दूँगी मैं,
मेरे 'ज्यादा' को हम बाँट लेंगे;
मैं सारे फर्ज़ अदा करने
तुमसे मिलने आऊँगी!
एक अरसे से बाँध रखा है
तुम्हारा नाम अपने नाम से,
मैं अपने दिल के जख्म लेकर
तुमसे मिलने आऊँगी!-
I stood still today,
facing my reflection.
I could barely speak,
maybe the mirror had objections,
Cause what I heard
was a sheer shout~
As if a bouquet of red carnations
going with a shroud!
The scars and the ends,
The scratches on my bends;
I could feel those nails
ripping my body off,
The scent of the evil
descending right from the top!
The more he leaned forward,
his breathe choked me;
I was lying naked,
what they call 'being free' !?
-
किस्मत की जीत पर
तारीफ तोहफ़े की होती है,
गर नवाजिश अपने नाम की चाहिए
तो दाव मेहनत पे लगाया करो!
मुकाम बढ़ने लगे गर
तो साथ जिम्मेदारियां भी आती हैं,
छिपने की नीव लेके
बाजी खेलने मत आया करो!
तारे टूटें भी जब
तो ख्वाइश पूरा किया करते हैं,
एक छोटी सी फतह को
जग जीतना मत बताया करो!
और गर उम्मीदें तुम्हारी
गिर ही गई हों 'आस्था',
तो इतनी ख्वाइशें लेके
मजाल छोटी मत लाया करो!-