अल्फ़ाज़ और जज़्बात
कुछ लिखने में ये मुश्क़िल बड़ी रहती है,
अल्फ़ाज़ की जैसे जज़्बात से अड़ी रहती है।
जज़्बात के घोड़े पहुँच जाते हैं मंज़िल पे,
अल्फ़ाज़ की गाड़ी वहीं पर खड़ी रहती है।
दर्द बहता है, मगर काग़ज़ स्याही को तरसता है,
रूह बोलती है, पर जुबां रूठी पड़ी रहती है।
कभी ख़्वाब की ख़ुशबू में, कभी ख़ामोशी में,
हर सच्चाई जैसे एक चिलमन में छिपी रहती है।
कभी लफ़्ज़ की तलाश में गुज़र जाते हैं दिन,
और बेबस तहरीर अधूरी सी वहीं पड़ी रहती है।-
ज़िंदगी की हर मुश्किल सब्र का पैग़ाम लाती है,
भरोसे की लौ से रहमत की किरन जगमगाती है।
दिल को साफ़ रखो, यक़ीन को इबादत बना लो,
फिर क़ायनात भी ख़्वाबों को सच कर दिखाती है।-
साँसे चल रही हैं, पर जी नहीं पा रही हूँ,
बेवफ़ाई के बाद भी, तुझमें ही सुकूँ पा रही हूँ।
दुआओं में अब भी, तेरा ख़याल शामिल है,
ये इश्क़ की सज़ा है, वफ़ा से निभा रही हूँ।-
जज़्बात की आँच अक्सर,
अल्फ़ाज़ में नहीं झलकती है।
दिल की तपिश तन्हा लम्हों में अक्सर,
ख़ामोशी से पलकों पर आ ठहरती है।-
जज़्बातों की आग
बाहर नहीं जलती,
अंदर सुलगती है।
लोग मुस्कान पढ़ते हैं,
दिल की तपिश
ख़ामोशी से अक्सर
आँखों में बहती है। (23 )-
गुज़र रही है ज़िंदगी या गुज़र रहा हूँ मैं,
पल-पल जी रहा हूँ या लम्हा-लम्हा मर रहा हूँ मैं।
किसी रिश्ते में अब अपनाइयत नहीं मिलती,
हर रिश्ते से कटकर तन्हा चल रहा हूँ मैं।
आईने में मेरा अक्स लगता है अब जुदा,
यूँ ख़ुद को पहचानने से भी डर रहा हूँ मैं।
दिल बोलना चाहता है दिल की कई दास्ताँ,
पर अपनी ही ख़ामोशी में डूबता जा रहा हूँ मैं।
होंठ मुस्कुराते हैं, पर रूह में उदासी है,
वक़्त के अंधेरों में चुपचाप बिखर रहा हूँ मैं।
जो ख़्याल-ए-तन्हाई करता था ख़ौफ़ज़दा, आसिफ़!
अब उसी की आग़ोश में सुकूँ से मर रहा हूँ मैं।-
तेरे गुज़रने के बाद ज़िंदगी बिख़री-बिख़री सी लगती है,
तेरे ग़म-ए-जुदाई से हर ख़ुशी उजड़ी-उजड़ी सी लगती है।
आईने में तलाश करती रहती हूँ ख़ुद को,
तेरे बग़ैर मेरी सूरत भी अजनबी सी लगती है।
हर नई सूरत बस एक परछाईं सी लगती है,
हर आवाज़ में डूबी मेरी तन्हाई सी लगती है।
तेरे लिखे ख़तों की स्याही तो अब भी ज़िंदा है,
मगर हर हर्फ़ में सिसकी झिपाई सी लगती है।
यादों का समुंदर आँखों से क़तरा-क़तरा बहता है,
मरहम-ए-वक़्त का असर अब अधूरा सा लगता है।
रोज़ाना वीरान ज़िंदगी को लम्हा-लम्हा जीती हूँ,
तेरे संग गुज़रे लम्हों के घूँट अमृत की तरह पीती हूँ।
तन्हाई रफ़ीक़ बन गई है अब मेरे दिल की, आसिफ़!
मगर रात की ख़ामोशी अब वज़नी सी लगती है।-
गिरह मन्नत के धागे की, अब खुलने लगी है,
बिन मांगी दुआ भी, अब मिलने लगी है।
होने लगा है शायद, मेरा रब मुझसे राज़ी,
मेरे हालात की तबीयत, अब संभलने लगी है।
कहीं खो गए थे जो खुशनुमा लम्हे,
अब लौट कर फिर लिपटने लगे हैं,
नाउम्मीदी के छाये काले घेरे,
अब हौले-हौले सिमटने लगे हैं।
जो लब कभी गिड़गिड़ाते थे सज्दों में,
अब सुकून-ए-दुआ से मुस्कुराने लगे हैं।
ख़ामोश चश्म रहते थे रात भर पुरनम,
अब फिर सज्दों में रौशन होने लगे हैं।
तेरे करम की बारिश में भीग कर, या रब!
शायद मेरे गुनाह भी अब धुलने लगे हैं।
हर कदम पे लगता है, साथ है एक फ़रिश्ता,
हर गम की घड़ी अब, सुकूँ की लगने लगी है।
हर धड़कन जैसे बन गई हो तस्बीह,
हर साँस भी अब कलमा पढ़ने लगी है।-
शुक्रगुज़ारी — एक रूहानी एहसास
तुम्हारा आज शायद किसी का ख़्वाब है,
शुक्रगुज़ारी ही हमेशा इसका जवाब है।
जो तुझसे छिन गया, वो शायद तेरा इम्तिहान था,
और जो रह गया तुझमें, वही तेरा असल ख़िताब है।
हर नेमत पे सिर्फ़ शुक्र अदा करना ही अदब नहीं,
ख़ुशी में भी झुक जाना इश्क़-ए-रब का सवाब है।
पसंद-नापसंद से ऊपर है शुकर का हुनर,
वरना हर नेमत भी कभी बोझ का हिसाब है।
मैंने छोड़ दिया है करना ज़िंदगी से सवाल,
उसकी रज़ा में होना राज़ी मेरा जवाब है।
तू पूछता है, क्यों रहूँ शुक्रगुज़ार हर हाल में रब का, आसिफ़?
क्योंकि रब की नेमतों का नहीं है हिसाब, वो देता बेहिसाब है।-