बहुतेरे लिबास में भी, अजीज है आजादी,
काबिल होते पंखों से आसमा को है लपेटी,
पर कतर भी जाये जो,तो खूब हूँ क्रांति,
सच्चे सोच, झूठी बोल, क्या ऐसी है पढ़ाई ?
सुकुमार हैं जो, क्या जाने क्या थी लड़ाई ?
अधिकारों के बात पे, कर देते जो जग-हसाई,
खून का रंग लाल, लाल रंग है क्रांति,
सच्चाई को रखो आगे, तो कहलाते देश-द्रोही,
पर अंजाम-ऐ-औरंगजेब भी यहीं कहीं था,
नेपोलियन-सिकंदर का युग भी बीता था,
झंझावातों में कहाँ कोई टिक पाया है,
उजड़ जाते है, राज जब क्रांति आता है,
ये दौर है, जो दौर जहाँ सब मुनासिब है,
सरकारी आदेशो पे जब दंगे कराए गए,
बहुआयामी परियोजनाओं का सूत्र चल रहा,
सब आदर्शवाद मिटाने को,
दंगो का प्रयाश चल रहा, दंगे निरोधक वाहनों से,
अब बस शह-मात का खेल है, 56 प्रपंच संग,
आग जला के ताप रहे है, तमाशबीन बने,
गरीब के झोपडो के,
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