आशुतोष आनंद   (विद्रोही_बिहारी)
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Joined 26 March 2020


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Joined 26 March 2020

प्रेम नैसर्गिक है, अपितु विद्रोही,
युद्ध आडम्बर है, अपितु सामाजिक,

प्रेम सम्मोहनवान है, और
समाज विरक्तियों का भक्त,

प्रेम कलम और कलाम है,
समाज युद्ध और वीरों का अनुयायी,

म्यानों से तलवारें निकली, और
दवातों से कलम भी,

इंसान रोज़ लड़ता भी है प्रेम में
और प्रेमी भी है समाज का

दो चेहरे रखने पड़ते हैं हर इंसान को,
वरना मयस्सर कहाँ जिंदगी बिना लिहाफ के।

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ख्वाइशों के फेहरिस्त में बिकता गया हर दिन,


खर्च इतने हुए लेकिन,
बाकी कुछ कसक फिर भी रह गए.

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31 OCT 2021 AT 14:18

फरियाद, गुज़ारिश, सुकून, मोहब्बत,
जिंदगी, वक़्त, लम्हे , तुम और मैं
बस इतनी सी हिं बात तो है|
वक़्त का ठहर जाना
मोहब्बत का पहला एहसास यही तो है|
जैसे कि सब कुछ रखा हो महबूबा के होंठो पे
और तुम्हारा यूँ शर्मा जाना|
संगीन सी रातें , प्यार भरी बातें,
तुम्हारी अंगड़ाइयाँ, पलंग की चर्मरहटें,
शील शीले से बदन और प्यार की गहराइयाँ,
सांसो से सांसो की तनातनी,
और गले पे प्यार की निशानियाँ,
चादर की सिलवटे समेटे तुम्हारे बदन की गहराइयाँ,
यूँ उत्तर रहे हैं जैसे समझ लो
कितनी अल्हड़ है जवानियाँ|
यूँ आज आज़ाद कर दो सारी बंदिशें
और मिल जाने दो सांसो की रफ्तार को
मेरी बेचैनियों को अपना कर मुझे बाहों में बुला लो,
धीरे से मैं, तुझमे उत्तर जाऊं,
उफ्फ ये सिसकियाँ, उफ्फ ये गर्मियाँ
आज बस ये रात थमी है,
जो सिर से नख तक तुम्हे एक करने के लिये
यूँ सुलग रहे हैं जज़्बात उठ खड़ी है आवारगी
बस तुम और मैं
और आज ये रात ठहर जाए

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27 SEP 2021 AT 15:12

बहुत बेतरतीब सा हूँ मै, बिल्कुल अव्यवस्थित सा,
जैसे कि जंगल के कानून से वाकिफ ना होना।

बहुत बेचैन सा रहता हूँ, एकदम अस्थिर सा, जैसे नदियाँ रहती है,
झरने और प्रपात बनाती है, बाँध के अस्तित्व से खेलते हुए।

अक्सर नींद में बातें करना, औऱ उचट जाना नींद का,
जैसे किसी ख्वाब को मर जाने पे कचोटना मन का।

फिर विचर रहा स्वच्छंद बीहड़ो में, यहाँ बागी बने,
हर रोज खुद से खुद की जंग में, मुह को खाते हुए।

यूं रोज़ उधेड़बुन में गुजर रही जिंदगानी मेरी,
सवाल बहुत हैं, जवाब एक भी नही,
हौसलो के सफर पे, दिल बाज होने को है,
निष्ठऊर अकेला, लेकिन शानदार होने को है,

उफ्फ पर क्या, मंज़िल बिना रास्तो के सफर में रहा है कभी,
इंकलाब का सृजन, कलमों ने किया है लेकिन,

जिंदादिली से रुख किया है, जंगलो में एक बार फिर,
खेले एक बाजी हंसकर, जीत या मौत की आज फिर।

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सिहराने रखी किताब और सपनों की सांकल ढीली कर दी,
एक तस्वीर आंखों में बसाया और फिर नींद हवा हो गयी,
सिलवटे खुलते गए कसक के और एक बार फिर लगा, शायद देर कर दी मैंने.

यूँ लगा था खुला आसमान जो, अब मुंडेर तक आ के रुक गया,
हम ज़रा लंबे क्या हुए, क्षितिज और लंबा हो गया,
चले थे राह पे जो सब कुछ छोड़ के, आधी बारिश में हिं शायद वो मुझे छोड़ चला.

मयस्सर क्या हुआ: ख्वाब, ईबादत और प्रेम,
शाम हुई और सब नशा हो गया,
हम शायद कहते हैं जिंदगी इसी को,
रोज़ ख्वाबो को दफन कर, सो जाते हैं जिस पे कफन ओढ़ कर,

और अब मुस्कान से भी होंठ जल जाते है यहाँ, मैं तो समझता था की यहाँ,
जात-दो, मजहब-एक, ठिकाना-एक है

है फरेब इतना कि, सारी दुनिया लपेट लाये,
और क्या लपेट लाये, बस दो गज जमी नाप पाए।

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सपने सबके हैं बदल जाने के,
उम्मीद के बादल को मूर्त रूप देने को,
बदलाव फुर्सत से कहाँ?
ये तो क्रांति माँगती है!!
तुम रंगों, मैं रंगु,
ये ख्याल नही हकीकत माँगती है,
रंज होगा कितना इसका,
ये कहानी पीढ़ियाँ कहती है।

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यूँ इस कदर लपट जाओ मुझसे,
जैसे ये ढाई गज की जमी हूँ मैं,
कई स्याह महीने और गुज़रने है,
सब्र की पहाड़ को घर बना लो तुम,
गर अब नसीब है तो मिलेंगे फिर तुमसे कभी,
यूँ करो, जा के टिका लगा लो तुम,

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17 JAN 2021 AT 20:42

और इसी तरह किसी शाम को शामें भीग सी गई,
आंखों में यादेँ और गालो पे लधक से गये,
फिर क्या शहर, क्या शेर, और कविताएं,
अब तो ढलती हुई दिन, बस बेहोश रातें बेखबर है।

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बहुतेरे लिबास में भी, अजीज है आजादी,
काबिल होते पंखों से आसमा को है लपेटी,
पर कतर भी जाये जो,तो खूब हूँ क्रांति,
सच्चे सोच, झूठी बोल, क्या ऐसी है पढ़ाई ?
सुकुमार हैं जो, क्या जाने क्या थी लड़ाई ?
अधिकारों के बात पे, कर देते जो जग-हसाई,
खून का रंग लाल, लाल रंग है क्रांति,
सच्चाई को रखो आगे, तो कहलाते देश-द्रोही,
पर अंजाम-ऐ-औरंगजेब भी यहीं कहीं था,
नेपोलियन-सिकंदर का युग भी बीता था,
झंझावातों में कहाँ कोई टिक पाया है,
उजड़ जाते है, राज जब क्रांति आता है,
ये दौर है, जो दौर जहाँ सब मुनासिब है,
सरकारी आदेशो पे जब दंगे कराए गए,
बहुआयामी परियोजनाओं का सूत्र चल रहा,
सब आदर्शवाद मिटाने को,
दंगो का प्रयाश चल रहा, दंगे निरोधक वाहनों से,
अब बस शह-मात का खेल है, 56 प्रपंच संग,
आग जला के ताप रहे है, तमाशबीन बने,
गरीब के झोपडो के,

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30 NOV 2020 AT 23:17

रौशन सा ये जहां, रौशन आसमा,
तुम्हारे कमरों की दीवाल पे, लौट आया चाँद,
यूँ बुनते रहे ख्वाबों के धागे जो तेरे साथ,
हकीकत हुए ईस कदर, आंखों से आंसू आ गए,
ये सख्ती सी बढ़ती जा रही मेरे इरादों में,
कहीं कुछ कम रह जाये तो अफसोस ना कर,
हाँथ इतने तो लंबे नही है मेरे की,
रातों से तारे ले आऊं अपने चाँद के खातिर,
महज़ कोशिश है तेरी कशिश की आंगन में,
मैं फ़क्त हुनरबाज हो जाऊं,
माना कि गलतियों का वाजिद, उल्फतों का वजूद मुझसे है,
निगहबान मेरी सख्सियत पे गौर कर अब,
बस भूल जा मैं कौन था,
हाँ ज़रा जाहिल हूँ और अपाहिज भी, इरादों से,
तुम मेरी आँखों का सुरमा अपनी हांथो से लगाया कर ज़रा,
यूँ तो सिमट रखें है कई जज़्बात तेरे लिए,
तू बैठ किसी शाम मेरे साथ,
आज मयखाने से शराब लाया हूँ,
और मेरी सीने से आती है इत्र तेरी,
यूँ अपने आँसूं से मेरी कमीज़ सराबोर ना कर,
कुछ और भी ख्वाब है मेरे, तेरे संग,
फना कर दे मुझे अब इस कदर,
कबूल कर और बारिश कर दे चुम्बन की इस कदर।

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