आशीष इलाहाबादी   (@आशीष *शांडिल्य*)
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Joined 30 May 2019


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Joined 30 May 2019

हर मरे तो हम मरे

और हमरी मरे बलाय..

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मिला उसे सबकुछ, शादी के बाद।
शहर में घर,
नौकरी,
सारे ऐशोआराम,
ये सब उसे मिला बस मोहब्बत छोड़कर।।

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कुछ तुम मजबूर रहे,
कुछ मैं भी मजबूर रहा,
मैं अपनी कमजोरियों से ताउम्र दूर रहा ।।
मनाई होंगी तुमने सैकड़ों खुशियां, मेरे बगैर।।
अश्क जब भी रहे आंखो में,
मैं पोछने उसे ज़रूर रहा।।

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रहता है ख्यालों में, कुछ जगा सा, कुछ सोया सा।
चाहता क्या ? बेचैन मन, कुछ पाया सा, कुछ खोया सा,
घूमता जग, बिका सा बेमोल, कोई हमसफ़र नहीं।
ढूढने निकलता, शहर वही, सफ़र वही।।

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सच को झूठ, झूठ को सच हम कैसे बना दें,
हम खुद को आप सा कैसे बना दें।।

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कौन कहां तक चला है, देश बचाने में,
बतलाते पांवों के छाले हैं।
जला रहें जो अपनी थाती और माटी को,
सबने अपने अपने भस्मासुर पालें हैं।।

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वो क्या थे, और क्या बनते रहे ।
जिसने भी दी आवाज़, वो रुकते रहे। ।।

उन्हें अपनी कीमत न कल पता थी, ना आज है,
जिसने जिस मोल पर चाहा बस बिकते रहे।।

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इक उम्र गुज़ार दी, खुद को शीशे में तराश कर,
बाजार जब आया, हरतरफ पत्थर थे।।

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जो हैं,
जितने हैं,
सब तेरे साथ रहेंगे।
मौसम देख कर रिश्ते बदला नहीं करते।।

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दूरियां अच्छी होती हैं, रिश्तों के लिए
खुदा दूर न होता, तो लोग उससे भी रूठ गए होते।।

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