गर सौभाग्यवश ,उसने लिया जन्म।
पैदा होते ही बांध दी गई, बेरियां अनंत।।
जब मालूम भी न था उसे अर्थ मर्यादा का।
समझा दी गई तभी उसे कायदा समाज का।
बता दी गई उसे उसकी सीमाओं की परिभाषा।
घर की चौखट और दबा के रखो अपनी अभिलाषा।।
स्वाभिमान को बांध फेक दो,किसी अंधेर कोने में,
पुरुषों की डांट और दुत्कार जैसे आभूषण सोने के।
सर्वस्व लुटाकर,खुद को ही दोषी ठहराकर,ऐसे ही रहना तुम
स्त्री की यही नियति,जानकर स्वयं के अरमानों के ढेर पर बैठ रोना तुम।
पर ध्यान रहे,ये सब खुद ही खुद में सहना तुम।
समाज की इस मिथ्या मर्यादो को ढोते ढोते नितप्रतिदिन मरना तुम
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