Aarsh Kumar Sahgal   (आर्ष कु० सहगल)
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Student👨
Joined 1 March 2020


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Joined 1 March 2020
2 JUL 2021 AT 13:43

" जातियों में बटे लोग "

काम को भी लोगों में बाट दिए गए हैं
इस जमाने में भी लोगों की जाति बड़ी मान लिए गए हैं

कुछ ही लोगों की छोटी सोच से आज लोग हैं छोटे-बड़े
स्कूल,कॉलेजों के अलावा भी लोग लंबी कतारों में हैं कहीं और खड़े

आज भी जरूरत है लोगों को कुछ सामाजिक ज्ञान की बातें
जाति-धर्म को बीच में लाकर सरकार भी करती है झूठे वादें

अपना न सही, सोच लेते इतने बड़े देश के बारे में
जाति,धर्म नहीं पूछ लेते लोगों की काबिलियत के बारे में ।

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22 JUN 2021 AT 17:57

" कमबख्त मोबाइल📱 "

रातों को सोना चाहता हूँ
किताबों📚 को खोलना चाहता हूँ
पापा से कुछ बोलना चाहता हूँ
गर्मियों के इस मौसम में
आमों 🍊के बगीचे में घूमना चाहता हूँ

बहन से कुछ बहस करना चाहता हूँ
पेड़ों पर चढ़कर जामुन🍇
तोड़ना चाहता हूँ
खेतों में बैठाये गए
भुट्टे 🌽भूजना चाहता हूँ

पर सबसे पहले मैं
सुबह🌄 जल्दी उठना चाहता हूँ
कमबख्त इस मोबाइल से
छूटना चाहता हुँ।

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6 JUN 2021 AT 9:49

" गर्मी का मौसम भी न "

ये रजाई का मौसम
भी बीत गया
इन तपती धूपों में आमों
का पकना भी न
तन-बदन भीग जाता
पसीने से खेतों में
आखिर आ ही गया ये
गर्मी का मौसम भी न

बादलें भी झूम
उठती कभी-कभी
मिल जाता आँधी-तूफानों
का ठिकाना भी न
हर कोई चाहता है बैठना
पेड़ों की छावों में
गेहूं की कटाई और
धानों की बैठवाई भी न

हर साल इंतज़ार रहता गर्मियों
की छुट्टियों में कहीं जाने का
नानी से पैसे पा कर
उनको चिढ़ाकर भागना भी न
बीत जाती छुट्टियाँ
खुल जाते स्कूल
आखिर बीत ही जाता है
ये गर्मी का मौसम भी न।

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23 MAY 2021 AT 23:36

इसके निकलने से हर रोज
एक नया शुरुवात होता है

पक्षियों की चह-चहाहट में 🐦
हर रोज एक नया अंदाज़ होता है

अरे! ये लाल गेंद जैसा सूरज ही तो है, 🌄
जिसका हर सुबह आगाज़ होता है।

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20 MAY 2021 AT 0:27

" एक बिमारी "


तन बदन तिल-मिला उठा है
आज कोई फिर चार
कंधों पर उठा है।

रुक ही नहीं रहा है ये
मुसिबतों का फासला
आज फिर सुबह एक
समाचार उठा है।

बह रहा है मुसिबतों
का शैलाब
न जाने कितनों का
काम रुका है ।

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19 MAY 2021 AT 14:53

" सूरज🌞 "

जब मिलना ही नहीं था
तब तरसे ही क्यों ?
सूरज ही निकलना था
तब बरसे ही क्यों ?

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5 MAY 2021 AT 10:31

" क़िताबों के पन्ने पलटते हैं "

चैटिंग की दुनिया से
अब बाहर निकलते हैं..
चलो अब लफ़्ज़ों
को पकड़ते हैं..

जमाना हो गया
जन्नत देखे
चलो अब किताबों
के जन्नत में चलते हैं..

इस डिजिटल दुनियां से
बाहर निकलते हैं..
चलो अब किताबों
के पन्ने पलटते हैं ।

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3 MAY 2021 AT 13:32

" ढ़लता हुआ सूरज "

यारों से बातें करते
किसका मन भर जाता है..
अच्छे काम करके
किसका तन थक जाता है..

' हौसला ' शब्द भी इतना
कमजोर नहीं होता..
संघर्ष से पहले ही इंसान
का मनोबल मर जाता है..

चुनौतियों को स्वीकारना ही इंसान
की सबसे बड़ी भक्ति होती है..
असफल होने पर भी जो बार-बार खड़े हो,
वही उनकी सबसे बड़ी शक्ति होती है..

हार क्यों जाते हो परिणाम
निकलने से पहले
ऐसे ही लोगों का सूरज ढ़ल
जाता है शाम होने से पहले ।

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1 MAY 2021 AT 9:05

" दो दोस्तों की ज़िद "

कुछ लम्हें बीत जाएँ
तो ही ठीक होता..
जिंदगी में बड़ी ज़िद मन
में आए तो ही ठीक होता..

हम निकले थे ज़माने
को कुछ सिखाने..
समाज में कोई बदलाव आए
तो ही ठीक होता..

ये कविता नहीं कहानी है
दो दोस्तों की..
उनकी मंजिल मिल जाए
तो ही ठीक होता ।

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18 APR 2021 AT 13:46

जंग में हथियार भी जरूरी है
दुश्मन पर वार भी जरूरी है
जब टूट जाए कच्ची उम्र में ही अरमान
तो कुछ समय के लिए हार भी जरूरी है..!

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